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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
शास्त्रागार से बाहर निकला । ईशानकोण में वैताढ्य पर्वत की ओर प्रयाण किया । राजा भरत वैताढ्य पर्वत की दाहिनी ओर की तलहटी थी, वहाँ आया । वहाँ बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा सैन्य-शिबिर स्थापित किया । वैताढ्यकुमार देव को उद्दिष्ट कर तेला किया । पौषध लिया, वैताढ्य गिरिकुमार का ध्यान करता हुआ अवस्थित हुआ । वैताढ्य गिरिकुमार का आसन डोला । आगे सिन्धुदेवी के समान समझना । राजा की आज्ञा से अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित कर आयोजकों ने राजा को सूचित किया।
___ अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न पश्चिम दिशा में तमिस्रा गुफा की ओर आगे बढ़ा । राजा भरत ने तमिस्रा गुफा से थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा सैन्य शिबिर स्थापित किया । कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर उसने तेला किया यावत् कृतमाल देव का आसन चलित हुआ । शेष वर्णन वैताढ्य गिरिकुमार समान है। कृतमाल देव ने राजा भरत को प्रीतिदान देते हुए राजा के स्त्री-रत्न के लिए रत्न-निर्मित चौदह तिलक-सहित आभूषणों की पेटी, कटक आदि लिये । राजा को ये उपहार भेंट किये । राजा ने उसका सत्कार किया, सम्मान किया, विदा किया । यावत् अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ। सूत्र - ७६
कतमाल देव के विजयोपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने अपने सुषेण सेनापति को बुलाकर कहा-सिंधु महानदी के पश्चिम से विद्यमान, पूर्व में तथा दक्षिण में सिन्धु महानदी द्वारा, पश्चिम में पश्चिम समुद्र द्वारा तथा उत्तर में वैताढ्य पर्वत द्वारा विभक्त भरतक्षेत्र के कोणवर्ती खण्डरूप निष्कुट प्रदेशों को, उसके सम, विषम अवान्तर-क्षेत्रों को अधिकृत करो । उनसे अभिनव, उत्तम रत्न-गृहीत करो। सेनापति सुषेण चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ । सुषेण भरतक्षेत्र में विश्रुतयशा-था । विशाल सेना का अधिनायक था, अत्यन्त बलशाली तथा पराक्रमी था । स्वभाव से उदात्त था । ओजस्वी, तेजस्वी था । वह भाषाओं में निष्णात था । उन्हें बोलने में, समझने में, उन द्वारा औरों को समझाने में समर्थ था । सुन्दर, शिष्ट भाषा-भाषी था। निम्न, गहरे, दुर्गम, दुष्प्रवेश्य स्थानों का विशेषज्ञ था । अर्थशास्त्र आदि में कुशल था । सेनापति सुषेण ने अपने दोनों हाथ जोड़े । उन्हें मस्तक से लगाया-राजा का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया । चलकर अपने आवास में आया । अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा
आभिषेक्य हस्तिरत्न तैयार करो, घोड़े, हाथी, रथ तथा उत्तम योद्धाओंसे चातुरंगिणी सेना सजाओ । ऐसा आदेश देकर स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त किया, अंजन आंजा, तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु मंगल-विधान किया । अपने शरीर पर लोहे के मोटे-मोटे तारों से निर्मित कवच कसा, धनुष पर दृढता के साथ प्रत्यञ्चा आरोपित की । गले में हार पहना । मस्तक पर अत्यधिक वीरतासूचक निर्मल, उत्तम वस्त्र गाँठ लगाकर बाँधा । बाण आदि क्षेप्य तथा खड्ग आदि अक्षेप्य धारण किये । अनेक गणनायक, दण्डनायक आदि से वह घिरा था । उस पर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र तना था । लोग मंगलमय जय-जय शब्द द्वारा उसे वर्धापित कर रहे थे । वह स्नानघर से बाहर निकला । गजराज पर आरूढ हुआ।
कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र गजराज पर लगा था, घोड़े, हाथी, उत्तम योद्धाओं से युक्त सेना से वह संपरिवृत्त था । विपुल योद्धाओं के समूह से समवेत था । उस द्वारा किये गये गम्भीर, उत्कृष्ट सिंहनाद की कलकल ध्वनि से ऐसा प्रतीत होता था, मानो समुद्र गर्जन कर रहा हो । सब प्रकार की ऋद्धि, द्युति, बल, शक्ति से युक्त वह जहाँ सिन्धु महानदी थी, वहाँ आया । चर्म-रत्न का स्पर्श किया । चर्म-रत्न श्रीवत्स-जैसा रूप लिये था । उस पर मोतियों के, तारों के तथा अर्धचन्द्र के चित्र बने थे । वह अचल एवं अकम्प था । वह अभेद्य कवच जैसा था। नदियों एवं समुद्रों को पार करने का यन्त्र-था । दैवी विशेषता लिये था । चर्म-निर्मित वस्तुओं में वह सर्वोत्कृष्ट था । उस पर बोये हुए सत्तरह प्रकार के धान्य एक दिन में उत्पन्न हो सकें, ऐसी विशेषता लिये था । गृहपतिरत्न इस चर्म-रत्न पर सूर्योदय के समय धान्य बोता है, जो उग कर दिन भर में पक जाते हैं, गृहपति सायंकाल उन्हें काट लेता है । चक्रवर्ती भरत द्वारा परामृष्ट वह चर्मरत्न कुछ अधिक बारह योजन विस्तृत था । मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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