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________________ आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति' प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र सूत्र - १९०, १९१ एक चंद्र के परिवार में अठासी ग्रह और अट्ठाईस नक्षत्र होते हैं, अब मैं तारागण का प्रमाण कहता हूँ -एक चंद्र के परिवार में ६६९०५ कोडाकोडी तारागण होते हैं। सूत्र - १९२ मनुष्य क्षेत्र के अन्तर्गत् जो चंद्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारागण हैं, वह क्या ऊोपपन्न हैं ? कल्पोपपन्न ? विमानोपपन्न है ? अथवा चारोपपन्न है ? वे देव विमानोपपन्न एवं चारोपपन्न है, वे चारस्थितिक नहीं होते किन्तु गतिरतिक-गतिसमापन्नक-ऊर्ध्वमुखीकलंबपुष्प संस्थानवाले हजारो योजन तापक्षेत्रवाले, बाह्य पर्षदा से विकुर्वित रो संख्या के वाद्य-तंत्री-ताल-त्रुटित इत्यादि ध्वनि से युक्त, उत्कृष्ट सिंहनाद-मधुरकलरव, स्वच्छ यावत् पर्वत-राज मेरुपर्वत को प्रदक्षिणावर्त्त से भ्रमण करते हुए विचरण करते हैं । इन्द्र के विरह में चार-पाँच सामानिक देव इन्द्रस्थान को प्राप्त करके विचरते हैं, वह इन्द्रस्थान जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट छ मास तक विरहित रहता है मनुष्यक्षेत्र की बाहिर जो चंद्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देव हैं, वे भी विमानोपपन्नक एवं चार स्थितिक होते हैं, किन्तु वे गतिरतिक या गतिसमापन्नक नहीं होते, पक्व इंट के आकार के समान संस्थित, लाखों योजन के तापक्षेत्रवाले, लाखों संख्या में बाहिर विकुर्वित पर्षदा यावत् दिव्यध्वनि से युक्त भोग भोगते हुए विचरण करते हैं । वे शुक्ललेश्या-मन्दलेश्या-आश्चर्यकारी लेश्या आदि से अन्योन्य समवगाढ होकर, कूड की तरह स्थानस्थित होकर उस प्रदेश को सर्व तरफ से प्रकाशित, उद्योतीत, तापीत एवं अवभासित करते हैं । इन्द्र के विरह में पूर्ववत् कथन समझ लेना। सूत्र - १९३ पुष्करोद नामक समुद्र वृत्त एवं वलयाकार है, वह चारो तरफ से पुष्करवर द्वीप को घीरे हए स्थित है । समचक्रवाल संस्थित है, उसका चक्रवाल विष्कम्भ संख्यात हजार योजन का है, परिधि भी संख्यात हजार योजन की है । उस पुष्करोद समुद्र में संख्यात चंद्र यावत् संख्यात तारागण कोड़ाकोड़ी शोभित हुए थे-होते हैं और होंगे । इसी अभिलाप से वरुणवरद्वीप, वरुणवरसमुद्र, खीखरद्वीप, खीखरसमुद्र, घृतवरद्वीप, घृतवरसमुद्र, खोदवरद्वीप, खोदोदसमुद्र, नंदीश्वरद्वीप, नंदीश्वरसमुद्र, अरुणद्वीप, अरुणोदसमुद्र यावत् कुण्डलवरावभास समुद्र समझ लेना । कुण्डलवरावभास समुद्र को घीरकर रुचक नामक वृत्त-वलयाकार एवं समचक्रवाल द्वीप है, उसका आयामविष्कम्भ और परिधि दोनों असंख्य हजार योजन के हैं । उसमें असंख्य चंद्र यावत् असंख्य तारागण कोड़ा कोड़ी समाविष्ट हैं । इसी प्रकार रुचकसमुद्र, रुचकवरद्वीप, रुचकवरसमुद्र, रुचकवरावभास द्वीप, रुचकवरावभास समुद्र यावत् सूखरावभास द्वीप तथा सूरवरावभास समुद्र को समझ लेना । सूरवरावभास समुद्र, देव नामक द्वीप से चारों तरफ से घीरा हुआ है, यह देवद्वीप वृत्त-वलयाकार एवं समचक्रवाल संस्थित हैं, चक्रवाल विष्कम्भ से एवं परिधि से असंख्य हजार योजन प्रमाण है । इस देवद्वीप में असंख्येय चंद्र यावत असंख्येय तारागण स्थित हैं। इसी प्रकार से देवोदसमुद्र यावत् स्वयंभूरमण समुद्र को समझ लेना । प्राभृत-१९-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूर्यप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 47
SR No.034683
Book TitleAgam 16 Suryapragnati Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 16, & agam_suryapragnapti
File Size2 MB
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