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आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति'
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प्राभृत-२० सूत्र - १९४
हे भगवंत ! चंद्रादि का अनुभाव किस प्रकार से है ? इस विषय में दो प्रतिपत्तियाँ है । एक कहता है कि चंद्रसर्य जीवरूप नहीं है. अजीवरूप है: घनरूप नहीं है. सषिररूप है, श्रेष्ठ शरीरधारी नहीं, किन्त कलेवररूप है, उनको उत्थान-कर्म-बल-वीर्य या परिषकार पराक्रम नहीं है, उनमें विद्यत, अशनिपात ध्वनि नहीं है, लेकिन उनके नीचे बादर वायुकाय संमूर्छित होता है और वहीं विद्युत यावत् ध्वनि उत्पन्न करता है । कोई दूसरा इस से संपूर्ण विपरीत मतवाला है-वह कहता है चंद्र-सूर्य जीवरूप यावत पुरुष पराक्रम से युक्त हैं, वह विद्यत यावत ध्वनि उत्पन्न करता है।
भगवंत फरमाते हैं कि चंद्र-सूर्य के देव महाऋद्धिक यावत महानुभाग है, उत्तम वस्त्र-माल्य-आभरण के धारक है, अव्यवच्छित नय से अपनी स्वाभाविक आयु पूर्ण करके पूर्वोत्पन्न देव का च्यवन होता है और अन्य उत्पन्न होता है । सूत्र - १९५
हे भगवन् ! राहु की क्रिया कैसे प्रतिपादित की है ? इस विषय में दो प्रतिपत्तियाँ हैं-एक कहता है कि-राहु नामक देव चंद्र-सूर्य को ग्रसित करता है, दूसरा कहता है कि राहु नामक कोई देव विशेष है ही नहीं जो चंद्र-सूर्य को ग्रसित करता है । पहले मतवाला का कथन यह है कि-चंद्र या सूर्य को ग्रहण करता हुआ कभी अधोभाग को ग्रहण करके अधोभाग से ही छोड़ देता है, उपर से ग्रहण करके अधो भाग से छोडता है, कभी उपर से ग्रहण करके उपर से ही छोड देता है, दायिनी ओर से ग्रहण करके दायिनी ओर से छोडता है तो कभी बायीं तरफ से ग्रहण करके बांयी तरफ से छोड़ देता है इत्यादि ।
जो मतवादी यह कहता है कि राहु द्वारा चंद्र-सूर्य ग्रसित होते ही नहीं, उनके मतानुसार-पन्द्रह प्रकार के कृष्णवर्णवाले पुद्गल हैं-शृंगाटक, जटिलक, क्षारक, क्षत, अंजन, खंजन, शीतल, हिमशीतल, कैलास, अरुणाभ, परिज्जय, नभसूर्य, कपिल और पिंगल राहु । जब यह पन्द्रह समस्त पुद्गल सदा चंद्र या सूर्य की लेश्या को अनुबद्ध करके भ्रमण करते हैं तब मनुष्य यह कहते है कि राह ने चंद्र या सूर्य को ग्रसित किया है। जब यह पुद्गल सूर्य या चंद्र की लेश्या को ग्रसित नहीं करते हुए भ्रमण करते हैं तब मनुष्य कहते हैं कि सूर्य या चंद्र द्वारा राहु ग्रसित हुआ है।
भगवंत फरमाते हैं कि-राहुदेव महाऋद्धिवाला यावत् उत्तम आभरणधारी है, राहुदेव के नव नाम है-शृंगाटक, जटिलक, क्षतक, क्षरक, दर्दर, मगर, मत्स्य, कस्यप और कृष्णसर्प । राहुदेव का विमान पाँच वर्णवाला है-कृष्ण, नील, रक्त, पीला और श्वेत । काला राहुविमान खंजन वर्ण की आभावाला है, नीला राहुविमान लीले तुंबड़े के वर्ण का, रक्त राहुविमान मंजीठवर्ण की आभावाला, पीला विमान हलदर आभावाला, श्वेत राहुविमान तेजपुंज सदृश होता है।
जिस वक्त राहुदेव विमान आते-जाते-विकुर्वणा करते-परिचारणा करते चंद्र या सूर्य की लेश्या को पूर्व से आवरित कर पश्चिममें छोड़ता है, तब पूर्व से चंद्र या सूर्य दिखते हैं और पश्चिम में राहु दिखता है, दक्षिण से आवरित करके उत्तर में छोड़ता है, तब दक्षिण से चंद्र-सूर्य दिखाई देते हैं और उत्तर में राहु दिखाई देता है। इसी अभिलाप से इसी प्रकार पश्चिम, उत्तर, ईशान, अग्नि, नैऋत्य और वायव्य में भी समझ लेना चाहिए । इस तरह जब राहु चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवरीत करता है, तब मनुष्य कहते हैं कि राहुने चंद्र या सूर्य का ग्रहण किया-ग्रहण किया । जब
रह राहु एक पार्श्व से चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवरीत करता है तब लोग कहते है कि राहुने चंद्र या सूर्य की कुक्षिका विदारण किया-विदारण किया । जब राह इस तरह चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवरीत क तब लोग कहते हैं कि राहुने चंद्र या सूर्य का वमन किया-वमन किया । इस तरह जब राहु चंद्र या सूर्य लेश्या को आवरीत करके बीचोबीच से नीकलता है तब लोग कहते हैं कि राहुने चंद्र या सूर्य को मध्य से विदारीत किया है । इसी तरह जब राह चारों ओर से चंद्र या सूर्य को आवरीत करता है तब लोग कहते हैं कि राहने चंद्र-सूर्य को ग्रसित किया।
राहु दो प्रकार के हैं-ध्रुवराहु और पर्वराहु । जो ध्रुवराहु है, वह कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ करके अपने पन्द्रहवे भाग से चंद्र की पन्द्रहवा भाग की लेश्या को एक एक दिन के क्रम से आच्छादित करता है और पूर्णिमा एवं अमावास्या के पर्वकाल में क्रमानुसार चंद्र या सूर्य को ग्रसित करता है; जो पर्वराहु है वह जघन्य से छह मास में और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूर्यप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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