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आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र
प्राभृत-१६ सूत्र-११५
हे भगवन् ! ज्योत्सना स्वरूप कैसे कहा है ? चंद्रलेश्या और ज्योत्सना दोनों एकार्थक शब्द हैं, एक लक्षण वाले हैं । सूर्यलेश्या और आतप भी एकार्थक और एक लक्षणवाले हैं । अन्धकार और छाया भी एकार्थक और एक लक्षणवाले हैं।
प्राभृत-१६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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प्राभृत-१७ सूत्र - ११६
हे भगवन् ! इनका च्यवन और उपपात कैसे कहा है ? इस विषय में पच्चीस प्रतिपत्तियाँ हैं-एक कहता है कि अनुसमय में चंद्र और सूर्य अन्यत्र च्यवते हैं, अन्यत्र उत्पन्न होते हैं... यावत्... अनुउत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में अन्यत्र च्यवते हैं-अन्यत्र उत्पन्न होते हैं । समस्त पाठ प्राभृत-छह के अनुसार समझ लेना । भगवंत फरमाते हैं कि वे चंद्र-सूर्य देव महाऋद्धि-महायुक्ति-महाबल-महायश-महानुभाव-महासौख्यवाले तथा उत्तमवस्त्र-उत्तममाल्य-उत्तम आभरण के धारक और अव्यवच्छित नयानुसार स्व-स्व आयुष्य काल की समाप्ति होने पर ही पूर्वोत्पन्न का च्यवन होता है और नए उत्पन्न होते हैं।
प्राभृत-१७-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूर्यप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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