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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' बहुत से सूर्याभविमान वासी देव और देवी भी हाथों में उत्पल यावत् शतपथ-सहस्रपत्र कमलों कोल कर सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले । तत्पश्चात उस सर्याभदेव के बहत-से अभियोगिक देव और देवियाँ हाथों में कलश यावत धुपदानों को लेकर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले ।
तत्पश्चात् सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् और दूसरे बहुत से देवों और देवियों से परिवेष्टित होकर अपनी समस्त ऋद्धि, वैभव यावत् वाद्यों की तुमुल ध्वनिपूर्वक जहाँ सिद्धायतन था, वहाँ आया । पूर्वद्वार से प्रवेश करके जहाँ देवछंदक और जिनप्रतिमाएं थीं वहाँ आया । उसने जिनप्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करके लोममयी प्रमार्जनी हाथ में ली और प्रमार्जनी को लेकर जिनप्रतिमाओं को प्रमार्जित किया । सुरभि गन्धोदक से उन जिनप्रतिमाओं का प्रक्षालन किया । सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। काषायिक सुरभि गन्ध से सुवासित वस्त्र से उनको पोंछा । उन जिन-प्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य-युगल पहनाया । पुष्प, माला, गन्ध, चूर्ण, वर्ण, वस्त्र और आभूषण चढ़ाये । फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोल मालाएं पहनाई। पंचरंगे पुष्पपुंजों को हाथ में लेकर उनकी वर्षा की और मांडने मांडकर उस स्थान को सुशोभित किया । फिर उन जिनप्रतिमाओं के सन्मुख शुभ्र, सलौने, रजतमय अक्षत तन्दुलों से आठ-आठ मंगलों का आलेखन किया, यथास्वस्तिक यावत् दर्पण।
तदनन्तर उन जिनप्रतिमाओं के सन्मुख श्रेष्ठ काले अगर, कुन्दरु, तुरुष्क और धूप की महकती सुगन्ध से व्याप्त और धूपवत्ती के समान सुरभिगन्ध को फैलाने वाले चन्द्रकांत मणि, वज्ररत्न और वैडूर्यमणि की दंडी तथा स्वर्ण-मणिरत्नों से रचित चित्र-विचित्र रचनाओं से युक्त वैडूर्यमय धूपदान को लेकर धूप-क्षेप किया तथा विशुद्ध अपूर्व अर्थसम्पन्न अपुनरुक्त महिमाशाली एक सौ आठ छन्दों में स्तुति की । स्तुति करके सात-आठ पग पीछे हटा,
और फिर पीछे हटकर बायां घुटना ऊंचा किया, दायां घुटना जमीन पर टिकाकर तीन बार मस्तक को भूमितल पर नमाया। नमाकर कुछ ऊंचा उठाया, तथा दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि कर इस प्रकार कहा
अरिहंत भगवंतों को नमस्कार हो, धर्म की आदि करने वाले, तीर्थंकर, स्वयंबुद्ध, पुरुषों में उत्तम पुरुषों में सिंह समान, पुरुषोंमें श्रेष्ठ पुंडरीक समान, पुरुषोंमें श्रेष्ठ गन्धहस्ती समान, लोकमें उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करनेवाले, लोकमें प्रदीप समान लोका-लोक को प्रकाशित करनेवाले, अभयदाता, श्रद्धा-ज्ञान रूप नेत्र दाता, मोक्षमार्गदाता, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्म उपदेशक, धर्म नायक, धर्म सारथी, चातुर्गतिक संसार का अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती, अप्रतिहत-श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन के धारक, छद्म के नाशक, रागादि शत्रुओं को जीतने वाले तथा अन्य जीवों को भी कर्म-शत्रुओं को जीतने के लिए प्रेरित करने वाले, संसारसागर को स्वयं तिरे हए तथा दूसरों को भी तिरने का उपदेश देने वाले, बोध को प्राप्त तथा दूसरों को भी बोधि प्राप्त कराने वाले, स्वयं कर्ममुक्त एवं अन्यों को भी कर्ममुक्त होने का उपदेश देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा शिव, अचल, नीरोग, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध अपुनरावृत्ति रूप सिद्धगति नामक स्थान में बिराजमान भगवंतों को वन्दन-नमस्कार हो।
भगवंतों को वन्दन-नमस्कार करने के पश्चात् सूर्याभदेव देवच्छन्दक और सिद्धायतन के मध्य देशभाग में आया । मोरपीछी उठाई और मोरपीछी से सिद्धायतन के अति मध्यदेशभाग को प्रमार्जित किया फिर दिव्य जलधारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करके हाथे लगाए, मांडने-मांडे यावत् हाथ में लेकर पुष्पपुंज बिखेरे । धूप प्रक्षेप किया और फिर सिद्धायतन के दक्षिण द्वार पर आकर मोरपीछी ली और उस मोरपीछी से द्वारशाखाओं पुतलियों एवं व्यालरूपों को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, सन्मुख धूप जलाई, पुष्प चढ़ाये, मालाएं चढ़ाई, यावत् आभूषण चढ़ाए । फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई गोल-गोल लम्बी मालाओं से विभूषित किया । धूपप्रक्षेप करने के बाद जहाँ दक्षिणद्वारवर्ती मुखमण्डप था और उसमें भी जहाँ उस दक्षिण दिशा के मुखमण्डप का अतिमध्य देशभाग था, वहाँ आया और मोरपीछी ली, उस अतिमध्य देशभाग को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, मांडने मांडे तथा ग्रहीत पुष्प पुंजों को बिखेर कर उपचरित किया यावत् धूपक्षेप किया।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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