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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय'
इसके बाद उस दक्षिणदिग्वर्ती मुखमण्डप के पश्चिमी द्वार पर आया, वहाँ आकर मोरपीछी ली । द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्याल रूपों को पूंजा, दिव्य जलधारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया । धूपक्षेप किया, पुष्प यावत् आभूषण चढ़ाये । लम्बी-लम्बी गोल मालाएं लटकायीं । कचग्रहवत् विमुक्त पुष्पपुंजों से उपचरित किया, धूप जलाई । तत्पश्चात् उसी दक्षिणी मुखमण्डप की उत्तरदिशा में स्थित स्तम्भ-पंक्ति के निकट आया । वहाँ आकर लोमहस्तक से बनी प्रमार्जनी को उठाया, उसमे स्तम्भों को, पुतलियों को और व्यालरूपों को प्रमार्जित किया यावत् धूप जलाने तक किया । इसके बाद दक्षिणदिशावर्ती मुखमण्डप के पूर्वी द्वार पर आया, लोमहस्तक हाथ में लिया और उससे द्वारशाखाओं, पुतलियों, सर्परूपों को साफ किया, यावत् धूप जलाने तक किया । तत्पश्चात् उस दक्षिण दिशावर्ती मुखमण्डप के दक्षिण द्वार पर आया और द्वारचेटियों आदि को साफ किया, यावत् पूर्वोक्त सब कार्य किए।
तदनन्तर जहाँ दाक्षिणात्य प्रेक्षागहमण्डप था, एवं उसका अतिमध्य देशभाग था और उसके मध्य में बना हआ वज्रमय अक्षपाट तथा उस पर बनी मणिपीठिका एवं मणिपीठिका पर स्थापित सिंहासन था, वहाँ आया और मोरपीछी लेकर उससे अक्षपाट, मणिपीठिका और सिंहासन को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा से सिंचित किया, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, धूपप्रक्षेप किया, पुष्प चढ़ाये तथा ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बीलम्बी गोल-गोल मालाओं से विभूषित किया यावत् धूपक्षेप करने के बाद अनुक्रम से जहाँ उसी दक्षिणी प्रेक्षागृहमण्डप के पश्चिमी द्वार एवं उत्तरी द्वार थे वहाँ आया और वहाँ आकर पूर्ववत् प्रमार्जनादि कार्य किए । उसके बाद पूर्वी द्वार पर आया । यहाँ आकर भी सब कार्य पूर्ववत् किये । तत्पश्चात् दक्षिणी द्वार पर आया, वहाँ आकर भी प्रमार्जनादि सब कार्य किए । इसके पश्चात् दक्षिणदिशावर्ती चैत्यस्तूप के सन्मुख आया । वहाँ आकर स्तूप और मणिपीठिका को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा से सिंचित किया, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, धूप जलाई, पुष्प चढ़ाये, लम्बी-लम्बी मालाएं लटकाईं आदि सब कार्य सम्पन्न किये । अनन्तर जहाँ पश्चिम दिशा की मणिपीठिका थी, जहाँ पश्चिम दिशा में बिराजमान जिनप्रतिमा थी वहाँ आकर प्रमार्जनादि सब कार्य किए । इसके बाद उत्तर-दिशावर्ती मणिपीठिका और जिनप्रतिमा के पास आया । प्रमार्जनादि सब कार्य किए।
इसके पश्चात् जहाँ पूर्वदिशावर्ती मणिपीठिका थी तथा पूर्वदिशा में स्थापित जिनप्रतिमा थी, वहाँ आया । पूर्ववत् प्रमार्जन आदि कार्य किए । इसके बाद जहाँ दक्षिण दिशा की मणिपीठिका और दक्षिणदिशावर्ती जिन
की वहाँ आया और पूर्ववत् कार्य किये । इसके पश्चात् दक्षिणदिशावर्ती चैत्यवृक्ष के पास आया । पूर्ववत् प्रमार्जनादि कार्य किए । इसके बाद जहाँ माहेन्द्रध्वज था, दक्षिण दिशा की नन्दा पुष्करिणी थी, वहाँ आया । मोरपीछी को हाथ में लिया और फिर तोरणों, त्रिसोपानों काष्ठपुतलियों और सर्परूपकों को मोरपीछी से प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, पुष्प चढ़ाये, लम्बी-लम्बी पुष्पमालाओं से विभूषित किया और धूपक्षेप किया । तदनन्तर सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करके उत्तरदिशा की नन्दा पुष्करिणी पर आया और वहाँ पर भी पूर्ववत् प्रमार्जनादि धूपक्षेप पर्यन्त कार्य किए । इसके बाद उत्तरदिशावर्ती चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तम्भ के पास आया एवं पूर्ववत् प्रमार्जनादि कार्य किए । इसके पश्चात् पश्चिम दिशा में स्थापित प्रतिमा थी, वहाँ आकर भी पूर्ववत् धूपक्षेपपर्यन्त कार्य किये ।
तत्पश्चात् वह उत्तर दिशा के प्रेक्षागृह मण्डप में आया और धूपक्षेपपर्यन्त दक्षिण दिशा के प्रेक्षागृहमण्डप जैसी समस्त वक्तव्यता यहाँ जानना । इसके बाद वह उत्तर दिशा के मुखमण्डप और उस उत्तरदिशा के मुखमण्डप के बहुमध्य देशभाग में आया । यहाँ आकर पूर्ववत् अक्षपाट, सब कार्य किए । इसके बाद वह पश्चिमी द्वार पर आया, वहाँ पर भी प्रमार्जनादि सब कार्य किए । तत्पश्चात् उत्तरी द्वार और उसकी दक्षिण दिशा में स्थित स्तम्भपंक्ति के पास आया । वहाँ भी पूर्ववत् सब कार्य किए । तदनन्तर सिद्धायतन के उत्तर द्वार पर आया । यहाँ भी पुतलियों आदि के प्रमार्जन आदि कार्य किये । इसके अनन्तर सिद्धायतन के पूर्वदिशा के द्वार पर आया यहाँ पर भी पूर्ववत् कार्य किये । इसके बाद जहाँ पूर्वदिशा का मुखमण्डप का अतिपर भी पूर्ववत् कार्य किये । इसके बाद
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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