________________
आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय'
तत्पश्चात् चार हजार सामानिक देवों यावत् सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकाधि-पतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा दूसरे भी बहुत से सूर्याभ राजधानी में वास करने वाले देवों और देवियों ने सूर्याभदेव को महान महिमाशाली इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त किया । प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा-हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! तुम्हारा भद्र-कल्याण हो ! हे जगदानन्दकारक ! तुम्हारी बारंबार जय हो ! तुम न जीते हुओं को जीतो और विजितों का पालन करो, जितों के मध्य में निवास करो । देवों में इन्द्र के समान, ताराओं में चन्द्र के समान, असुरों में चमरेन्द्र के समान, नागों में धरणेन्द्र के समान, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती के समान, अनेक पल्योपमों तक, अनेक सागरोपमों तक, अनेक-अनेक पल्योपमों-सागरोपमों तक, चार हजार सामानिक देवों यावत सोलह हजार आत्म-रक्षक देवों तथा सर्याभ विमान और सर्याभ विमान वासी अन्य बहत से देवों और देवियों का बहुत-बहुत अतिशय रूप से आधिपत्य यावत् करते हुए, पालन करते हुए विचरण करो । इस प्रकार कहकर पुनः जय-जयकार किया।
___ अतिशय महिमाशाली इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त होने के पश्चात् सूर्याभदेव अभिषेक सभा के पूर्वदिशावर्ती द्वार से बाहर नीकला, जहाँ अलंकार-सभा थी वहाँ आया । अलंकार-सभा की अनुप्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से अलंकार-सभा में प्रविष्ट हुआ । जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया, पूर्व की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर आरूढ़ हुआ । तदनन्तर उस सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने उसके सामने अलंकार उपस्थित किया। इसके बाद सूर्याभदेव ने सर्वप्रथम रोमयुक्त सुकोमल काषायिक सुरभिगंध से सुवासित वस्त्र से शरीर को पोंछा । शरीर पर सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, नाक को निःश्वास से भी उड़ जाए, ऐसा अति बारीक नेत्रा-कर्षक, सुन्दर वर्ण और स्पर्श वाले, घोड़े के थूक से भी अधिक सुकोमल, धवल जिनके पल्लों और किनारों पर सुनहरी बेलबूटे बने हैं, आकाश एवं स्फटिक मणि जैसी प्रभा वाले दिव्य देवदूष्य युगल को धारण किया । गले में हार पहना, अर्धहार पहना, एकावली पहनी, मुक्ताहार पहना, रत्नावली पहनी, एकावली पहन कर भुजाओंमें अंगद, केयूर कड़ा, त्रुटित, करधनी, हाथों की दशों अंगुलियोंमें दस अंगुठियाँ, वक्षसूत्र, मुरवि, कंठमुरवि, प्रालम्ब, कानों में कुंडल पहने, मस्तक पर चूड़ामणि और मुकूट पहना । इन आभूषणों को पहनने पश्चात् ग्रंथिम, वेष्टिम, पूरिम और संघातिम, इन चार प्रकार की मालाओंसे अपने को कल्पवृक्ष के समान अलंकृत किया। दद्दर मलय चंदन की सुगन्ध से सुगन्धित चूर्ण को शरीर पर छिकड़ा और फिर दिव्य पुष्पमालाओं को धारण किया सूत्र -४३
तत्पश्चात् केशालंकारों, पुष्प-मालादि रूप माल्यालंकारों, हार आदि आभूषणालंकारों एवं देवदूष्यादि वस्त्रालंकारों धारण करके अलंकारसभा के पूर्वदिग्वर्ती से बाहर नीकला । व्यवसाय सभा में आया एवं बारंबार व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से प्रविष्ट हुआ । जहाँ सिंहासन था वहाँ आकर यावत् सिंहासन पर आसीन हुआ । तत्पश्चात् सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने व्यवसायसभा में रखे पुस्तक-रत्न को उसके समक्ष रखा । सूर्याभदेव ने उस उपस्थित पुस्तक-रत्न को हाथ में लिया, पुस्तक-रत्न खोला, उसे बांचा । धर्मानुगत कार्य करने का निश्चय किया । वापस यथास्थान पुस्तकरत्न को रखकर सिंहासन से उठा एवं व्यवसाय सभा के पूर्व-दिग्वर्ती द्वार से बाहर नीकलकर जहाँ नन्दापुष्करिणी थी, वहाँ आया । पूर्व-दिग्वर्ती तोरण और त्रिसोपान पंक्ति में नन्दा पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ । पैर धोए । आचमन-कुल्ला कर पूर्ण रूप से स्वच्छ और परम शूचिभूत होकर मत्त गजराज की मुखाकृति जैसी एक विशाल श्वेतधवल रजतमय से भरी हुई भंगार एवं वहाँ के उत्पल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लिया । नन्दा पुष्करिणी से बाहर नीकला । सिद्धायतन की ओर चलने के लिए उद्यत हुआ। सूत्र -४४
तब उस सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा कितने ही अन्य
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 33