SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' अनशन द्वारा विच्छिन्न करते हैं, बहुत दिनों तक निराहार रहते हैं । पाप-स्थानों की आलोचना करते हैं, उनसे प्रतिक्रान्त होते हैं । यों समाधि अवस्था प्राप्त कर मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्टतः अच्यूतकल्प में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप गति होती है । उनकी स्थिति बाईस सागरोपम होती है । वे परलोक के आराधक होते हैं। शेष पूर्ववत् । ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे-अनारंभ, अपरिग्रह, धार्मिक यावत् सुशील, सुव्रत, स्वात्मपरितुष्ट, वे साधुओं के साक्ष्य से जीवनभर के लिए संपूर्णतः-हिंसा, संपूर्णतः असत्य, सम्पूर्णतः चोरी, संपूर्णतः अब्रह्मचर्य तथा संपूर्णतः परिग्रह से प्रतिविरत होते हैं, संपूर्णतः क्रोध से, माया से, लोभ से, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से प्रतिविरत होते हैं, सब प्रकार के आरंभ-समारंभ से, करने तथा कराने से, पकाने एवं पकवाने से सर्वथा प्रतिविरत होते हैं, कूटने, पीटने, तर्जित करने, ताड़ित करने, किसी के प्राण लेने, रस्सी आदि से बाँधने एवं किसी को कष्ट देने से सम्पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं, स्थान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला और अलंकार से सम्पूर्ण रूप में प्रतिविरत होते हैं, इसी प्रकार और भी पाप-प्रवृत्तियुक्त, छल-प्रपंचयुक्त, दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुँचाने वाले कर्मों से जीवनभर के लिए संपूर्णतः प्रतिविरत होते हैं। वे अनगार ऐसे होते हैं, जो ईर्या, भाषा, समिति यावत् पवित्र आचारयुक्त जीवन का सन्निर्वाह करते हैं । ऐसी चर्या द्वारा संयमी जीवन का सन्निर्वाह करने वाले पूजनीय श्रमणों में से कइयों को अन्त यावत् केवलज्ञान, केवलदर्शन समुत्पन्न होता है । वे बहुत वर्षों तक केवलिपर्याय का पालन करते हैं । अन्त में आहार का परित्याग करते हैं, अनशन सम्पन्न कर यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं । जिन कइयों अनगारों को केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न नहीं होता, वे बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-पर्याय में होते हुए संयम-पालन करते हैं-फिर किसी आबाध के उत्पन्न होने पर या न होने पर भी वे भोजन का परित्याग कर देते हैं । बहुत दिनों का अनशन करते हैं । जिस लक्ष्य से कष्टपूर्ण संयम-पथ स्वीकार किया, उसे आराधित कर अपने अन्तिम उच्छ्वास निःश्वास में अनन्त, घिात, निरावरण, कत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात सिद्ध होते हैं, सब दुःखों का अन्त करते हैं। कईं एक ही भव करने वाले, भगवंत-संयममयी साधना द्वारा संसार-भय से अपना परित्राण करने वालेउनके कारण, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी स्थिति तैंतीस सागरोपम-प्रमाण होती है । वे परलोक के आरधक होते हैं । शेष पूर्ववत् । ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे-सर्वकामविरत, सर्वराग-विरत, सर्व संगातीत, सर्वस्नेहातिक्रान्त, अक्रोध, निष्क्रोध, क्रोधोदयरहित, क्षीणक्रोध, इसी प्रकार जिनके मान, माया, लोभ क्षीण हो गए हों, वे आठों कर्म-प्रकृतियों का क्षय करते हुए लोकाग्र में प्रतिष्ठित होते हैं-मोक्ष प्राप्त करते हैं। सूत्र - ५२ भगवन् ! भावितात्मा अनगार केवलि-समुद्घात द्वारा आत्मप्रदेशों को देह से बाहर निकाल कर, क्या समग्र लोक का स्पर्श कर स्थित होते हैं ? हाँ, गौतम ! स्थित होते हैं । भगवन् ! क्या उन निर्जरा-प्रधान पुद्गलों से समग्र लोक स्पृष्ट होता है ? हाँ, गौतम ! होता है । भगवन् ! छद्मस्थ, विशिष्ट ज्ञानरहित मनुष्य क्या उन निर्जरापुद्गलों के वर्णरूप से वर्ण को, गन्धरूप से गन्ध को, रस रूप से रस को तथा स्पर्शरूप से स्पर्श को जानता है ? देखता है ? गौतम ! ऐसा संभव नहीं है।। भगवन् ! यह किस अभिप्राय से कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन खिरे हुए पुद्गलों के वर्ण रूप वर्ण को, गन्ध रूप से गन्ध को, रस रूप से रस को तथा स्पर्श रूप से स्पर्श को जरा भी नहीं जानता, नहीं देखता । गौतम ! यह जम्बूद्वीप सभी द्वीपों तथा समुद्रों के बिलकुल बीच में स्थित है । यह आकार में सबसे छोटा है, गोल है। तैल में पके हए पू यूए के समान, रथ के पहिये के सदृश, कमल-कर्णिका की तरह और पूर्ण चन्द्रमा के आकार के समान गोलाकार है । एक लाख योजन-प्रमाण लम्बा-चौड़ा है । इसकी परिधी तीन लाख सोलह हजार दौ सौ योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष तथा साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है । एक अत्यधिक ऋद्धिमान्, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 35
SR No.034679
Book TitleAgam 12 Aupapatik Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 12, & agam_aupapatik
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy