________________
आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' प्रत्येक घर से भिक्षा लेने वाले, जब बिजली चमकती हो तब भिक्षा नहीं लेने वाले, मिट्टी से बने नाँद जैसे बड़े बर्तन में प्रविष्ट होकर तप करने वाले, वे ऐसे आचार द्वारा विहार करते हुए बहुत वर्षों तक आजीवक-पर्याय का पालन कर, मृत्यु-काल आने पर मरण प्राप्त कर, उत्कृष्ट अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी स्थिति बाईस सागरोपम-प्रमाण होती है । वे आराधक नहीं होते । अवशेष वर्णन पूर्ववत् है।
ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये प्रव्रजित श्रमण होते हैं, जैसे-आत्मोत्कर्षक, परपरिवादक, भूतिकर्मिक, कौतुककारक | वे इस प्रकार की चर्चा लिए विहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं । अपने गृहीत पर्याय का पालन कर वे अन्ततः अपने पाप-स्थानों की आलोचना नहीं करते हुए, उनसे प्रतिक्रान्त नहीं होते हुए, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट अच्युत कल्प में आभियोगिक देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है । उनकी स्थिति बाईस सागरोपम-प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते । अवशेष वर्णन पूर्ववत् है।।
ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो निह्नव होते हैं, जैसे-बहुरत, जीवप्रादेशिक, अव्यक्तिक, सामुच्छेदिक, द्वैक्रिय, त्रैराशिक तथा अबद्धिक, वे सातों ही जिन-प्रवचन का अवलाप करने वाले या उलटी प्ररूपणा करने वाले होते हैं । वे केवल चर्या आदि बाह्य क्रियाओं तथा लिंग में श्रमणों के सदृश होते हैं । वे मिथ्यादृष्टि हैं । असद्भावनिराधार परिकल्पना द्वारा, मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को-दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए-अतथ्यपरक संस्कार जमाते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं । मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट ग्रैवेयक देवों में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। वहाँ उनकी स्थिति इकत्तीस सागरोपम-प्रमाण होती है । वे परलोक के आराधक नहीं होते । अवशेष वर्णन पूर्ववत्
ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे अल्पारंभ, अल्पपरिग्रह, धार्मिक, धर्मानुग, धर्मिष्ठ, धर्माख्यायी, धर्मप्रलोकी, धर्मप्ररंजन, धर्मसमुदाचार, सुशील, सुव्रत, सुप्रत्यानन्द, वे साधुओं के पास-यावत् स्थूल रूप में जीवनभर के लिए हिंसा से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, प्रेय से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, परपरिवाद से, रति-अरति से तथा मिथ्यादर्शनशल्य से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः-अनिवृत्त होते हैं, अंशतः-आरम्भ-समारम्भ से विरत होते हैं, अंशतः-अविरत होते हैं, वे जीवन भर के लिए अंशतः किसी क्रिया के करने-कराने से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवनभर के लिए अंशतः पकाने, पकवाने से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवनभर के लिए कूटने, पीटने, तर्जित करने, ताड़ना करने, वध, बन्ध, परिक्लेश अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवनभर के लिए स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला तथा अलंकार से अंशतः प्रतिविरत होते हैं अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, इसी प्रकार और भी पापमय प्रवृत्ति युक्त, छल-प्रपंच युक्त, दूसरों के प्राणों को कष्ट पहँचाने वाले कर्मों से जीवनभर के लिए अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं।
ऐसे श्रमणोपासक होते हैं, जिन्होंने जीव, अजीव आदि पदार्थों का स्वरूप भली भाँति समझा है, पुण्य पाप का भेद जाना है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध एवं मोक्ष को भलीभाँति अवगत किया है,
की सहायता के अनिच्छक हैं जो देव, नाग, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व, महोरग आदि देवों द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अनतिक्रमणीय है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो निःशंक, निष्कांक्ष, निर्विचिकित्स, लब्धार्थ, गृहीतार्थ, पृष्टार्थ, अभिगतार्थ, विनिश्चितार्थ हैं, जो अस्थि और मज्जा तक धर्म के प्रति प्रेम तथा अनुराग से भरे हैं, जिनका यह निश्चित विश्वास है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही अर्थ है, अन्य अनर्थ हैं, उच्छित, अपावृतद्वार, त्यक्तान्तःपुरगृह-द्वारप्रवेश, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या एवं पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन करते हुए, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन, औषध, भेषज, दवा, प्रतिहारिक, पाट, बाजोठ, ठहरने का स्थान, बिछाना आदि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए विहार करते हैं, इस प्रकार का जीवन जीते हुए वे अन्ततः भोजन का त्याग कर देते हैं। बहुत से भोजन-काल
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 34