SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' तब कालक दृढ़प्रतिज्ञ के माता-पिता कलाचार्य का विपुल-प्रचुर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, गन्ध, माला तथा अलंकार द्वारा सत्कार करेंगे, सम्मान करेंगे । सत्कार-सम्मान कर उन्हें विपुल, जीविकोचित, प्रीति-दान देंगे । बहत्तर कलाओं में पंडित प्रतिबुद्ध नौ अंगों की चेतना, यौवनावस्था में विद्यमान, अठारह देशी भाषाओं में विशारद, गीतप्रिय, संगीत-विद्या, नृत्य-कला आदि में प्रवीण, अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहयुद्ध इन सब में दक्ष, विकालचारी, साहसिक, दृढ़प्रतिज्ञ यों सांगोपांग विकसित होकर सर्वथा भोग-समर्थ हो जाएगा। माता-पिता बहत्तर कलाओं में मर्मज्ञ, अपने पुत्र दृढ़प्रितज्ञ को सर्वथा भोग-समर्थ जानकर अन्न, पान, लयन, उत्तम वस्त्र तथा शयन-उत्तम शय्या, आदि सुखप्रद सामग्री का उपभोग करने का आग्रह करेंगे । तब कुमार दृढ़प्रतिज्ञ अन्न (पान, गह, वस्त्र) शयन आदि भोगोंमें आसक्त, अनुरक्त, गद्ध, मूर्च्छित तथा अध्यवसित नहीं होगा। जैसे उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सुगन्ध, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, शतसहस्रपत्र आदि विविध प्रकार के कमल कीचड़में उत्पन्न होते हैं, जलमें बढ़ते हैं पर जल-रज से लिप्त नहीं होते, उसी प्रकार कुमार दृढ़प्रतिज्ञ जो काममय जगत में उत्पन्न होगा, भोगमय जगत में संवर्धित होगा, पर काम-रज से, भोग-रज से, लिप्त नहीं होगा, मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन तथा अन्यान्य सम्बन्धी, परिजन इनमें आसक्त नहीं होगा। वह तथारूप स्थविरों के पास केवलबोधि प्राप्त करेगा । गृहवास का परित्याग कर वह अनगार-धर्म में प्रव्रजित होगा । वे अनगार भगवान्-मुनि ईर्या यावत् गुप्त ब्रह्मचारी होंगे । इस प्रकार की चर्या में संप्रवर्तमान हुए मुनि दृढ़प्रतिज्ञ को अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होगा। तत्पश्चात् दृढ़प्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवलि-पर्याय का पालन करेंगे । एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तवन, केशलुंचन, ब्रह्मचर्यवास, अच्छत्रक, जूते या पादरक्षिका धारण नहीं करना, भूमि पर सोना, फलक पर सोना, सामान्य काठ की पटिया पर सोना, भिक्षा हेतु परगृह में प्रवेश करना, जहाँ आहार मिला हो या न मिला हो, औरों से जन्म-कर्म की भर्त्सनापूर्ण अवहेलना या तिरस्कार, खिसना, निन्दना, गर्हणा, तर्जना, ताडना, परिभवना, परिव्यथना, बाईस प्रकार के परिषह तथा देवादिकृत उपसर्ग आदि स्वीकार किये, उस लक्ष्य को पूरा कर अपने अन्तिम उच्छ्वासनिःश्वास में सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिवृत्त होंगे, सब दुःखों का अन्त करेंगे। सूत्र - ५१ जो ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में प्रव्रजित श्रमण होते हैं, जैसे-आचार्यप्रत्यनीक, उपाध्याय-प्रत्यनीक, कुल-प्रत्यनीक, गण-प्रत्यनीक, आचार्य और उपाध्याय के अयशस्कर, अवर्णकारक, अकीर्तिकारक, असद्भाव, आरोपण तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को-दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं । अपने पाप-स्थानों की आलोचना, प्रतिक्रमण नहीं करते हुए मृत्यु-काल आ जाने पर मरण प्राप्त कर वे उत्कृष्ट लान्तक नामक छठे देवलोक में किल्बिषिक संज्ञक देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है । उनकी वहाँ स्थिति तेरह सागरोपम-प्रमाण होती है। अनाराधक होते हैं । अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। जो ये संज्ञी, पर्याप्त, तिर्यग्योनिक जीव होते हैं, जैसे-जलचर, स्थलचर तथा खेचर, उनमें से कइयों के प्रशस्त, शुभ परिणाम तथा विशुद्ध होती हई लेश्याओं के कारण ज्ञानावरणीय एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए अपनी संज्ञित्व-अवस्था से पूर्ववर्ती भवों की स्मृति हो जाती है । वे स्वयं पाँच अणुव्रत स्वीकार करते हैं । अनेकविध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास आदि द्वारा आत्म भावित होते हए बहुत वर्षों तक अपने आयुष्य का पालन करते हैं । फिर वे अपने पाप-स्थानों की आलोचना कर, उनसे प्रतिक्रान्त हो, समाधि-अवस्था प्राप्त कर, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सहस्रार-कल्पदेवलोक में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है । उनकी वहाँ स्थिति अठारह सागरोपम-प्रमाण होती है । वे परलोक के आराधक होते हैं । अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो आजीवक होते हैं, जैसे-दो घरों के अन्तर से भिक्षा लेने वाले, तीन घर छोड़कर भिक्षा लेने वाले, सात घर छोड़कर भिक्षा लेने वाले, नियम-विशेषवश भिक्षा में केवल कमल लेने वाले, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 33
SR No.034679
Book TitleAgam 12 Aupapatik Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 12, & agam_aupapatik
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy