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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' विवेक समझाया । विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण का निरूपण किया । विरमण की व्याख्या करते हए आपने पापकर्म न करने की विवेचना की । दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके । इससे श्रेष्ठ धर्म की तो बात ही कहाँ ? यों कहकर वह परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी ओर लौट गई। सूत्र-४२
तत्पश्चात् भंभसार का पुत्र राजा कूणिक श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हृष्ट, तुष्ट हुआ, मन में आनन्दित हआ। अपने स्थान से उठा । श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। वन्दननमस्कार किया । बोला-भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात, सुप्रज्ञप्त, सुभाषित, सुविनीत, सुभावित, निर्ग्रन्थ प्रवचन अनुत्तर है । इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहाँ ? यों कह कर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। सूत्र -४३
सुभद्रा आदि रानियाँ श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हृष्ट, तुष्ट हई, मन में आनन्दित हुई। अपने स्थान से उठीं । उठकर श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की । वैसा कर भगवान को वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार कर वे बोली-''निर्ग्रन्थ-प्रवचन सुआख्यात है...सर्वश्रेष्ठ है...इत्यादि पूर्ववत् ।' यों कहकर वे जिस दिशा से आई थीं, उसी दिशा की ओर चली गईं।
मुनि दीपरत्नसागरकृत् 'समवसरण'' विषयक हिन्दी अनुवाद पूर्ण
सूत्र-४४
उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्र-संस्थान संस्थित थे-जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन थे, कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी थे, तप्त तपस्वी, जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे, जो उराल साधना में सशक्त घोरगुण धारक, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, उत्क्षिप्तशरीर थे, जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे, भगवान महावीर से न अधिक दूर न अधक समीप पर संस्थित हो, घुटने ऊंचे किये, मस्तक नीचे किये, ध्यान की मुद्रा में, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित थे।
तब उन भगवान गौतम के मन में श्रद्धापूर्वक ईच्छा पैदा हुई, संशय-जिज्ञासा एवं कुतूहल पैदा हुआ । पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उभरा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुआ । उठकर जहाँ भगवान महावीर थे, आए । तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दना-नमस्कार किया । भगवान के न अधिक समीप न अधिक दूर सूनने की ईच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, उनकी पर्युपासना- करते हुए बोले | भगवन्! वह जीव, जो असंयत है, जो अविरत है, जिसने प्रत्याख्यान द्वारा पाप-कर्मों को प्रतिहत नहीं किया, जो सक्रिय है, जो असंवृत है, जो एकान्तदंड युक्त है, जो एकान्तबाल हैं, जो एकान्तसुप्त है, क्या वह पाप-कर्म से लिप्त होता है-हाँ, गौतम ! होता है।
भगवन् ! वह जीव, जो असंयत है, जो अविरत है, जिससे प्रत्याख्यान द्वारा पाप कर्मों को प्रतिहत नहीं किया, जो सक्रिय हैं, जो असंवृत हैं, जो एकान्तदंडयुक्त हैं, जो एकान्त-बाल हैं, जो एकान्त-सुप्त हैं, क्या वह मोहनीय पाप-कर्म से लिप्त होता है-मोहनीय पाप-कर्म का बंध करता है ? हाँ गौतम ! करता है । भगवन् ! क्या जीव मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ मोहनीय कर्म का बंध करता है? क्या वेदनीय कर्म का बंध करता है ? गौतम ! वह मोहनीय कर्म का बंध करता है, वेदनीय कर्म का भी बंध करता है । किन्तु चरम मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ जीव वेदनीय कर्म का ही बंध करता है, मोहनीय का नहीं।
भगवन् ! जो जीव असंयत है, अविरत है, जिसने सम्यक्त्वपूर्वक पापकर्मों को प्रतिहत नहीं किया है, जो सक्रिय है, असंवृत है, एकान्त दण्ड है, एकान्तबाल है तथा एकान्तसुप्त है, त्रस-द्वीन्द्रिय आदि स्पन्दनशील, हिलने
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (औपपातिक) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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