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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' जीव सिद्धि प्राप्त करते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त हो जाते हैं, परिनिर्वृत्त होते हैं तथा सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं । एकाढूं, ऐसे भदन्त हैं । वे देवलोक महर्द्धिक (अत्यन्त द्युति, बल तथा यशोमय), अत्यन्त सुखमय दूरंगतिक हैं। वहाँ देवरूप में उत्पन्न वे जीव अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न तथा चिरस्थितिक है। उनके वक्षःस्थल हारों से सुशोभित होते हैं | वे कल्पोपग देवलोक में देव-शय्या से युवा रूप में उत्पन्न होते हैं । वे वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में भद्र अवस्था को प्राप्त करने वाले हैं । असाधारण रूपवान् होते हैं । भगवान ने आगे कहा-जीव चार स्थानों से-नैरयिक का आयुष्यबन्ध करते हैं, फलतः वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं । वे स्थान इस प्रकार हैं-१. महाआरम्भ, २. महापरिग्रह, ३. पंचेन्द्रिय-वध, ४. मांस-भक्षण । इन कारणों से जीव तिर्यंच-योनि में उत्पन्न होते हैं-१. मायापूर्ण निकृति, २. अलीक वचन, ३. उत्कंचनता, ४. वंचनता । इन कारणों से जीव मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होते हैं-१. प्रकृति-भद्रता , २. प्रकृति-विनीतता, ३. सानुक्रोशता, ४. अमत्सरता । इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते हैं-१. सरागसंयम, २. संयमासंयम, ३. अकाम-निर्जरा, ४. बाल-तप-तत्पश्चात् भगवान ने बतलायासूत्र-३५, ३६
जो नरक में जाते हैं, वे वहाँ नैरयिकों जैसी वेदना पाते हैं । तिर्यंच योनि में गये हए वहाँ होने वाले शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त करते हैं ।मनुष्यजीवन अनित्य है । उसमें व्याधि, वृद्धावस्था, मृत्यु और वेदना आदि प्रचुर कष्ट हैं । देवलोक में देव दैवीऋद्धि और दैवीसख प्राप्त करते हैं। सूत्र-३७-४०
भगवान ने नरक तिर्यंचयोनि, मानुषभाव, देवलोक तथा सिद्ध, सिद्धावस्था एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया । जैसे-जीव बंधते हैं, मक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं। कई अप्रतिबद्ध व्यक्ति दःखों का अन्त करते हैं । पीड़ा वेदना या आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख-सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य प्राप्त जीव कर्म-बल को ध्वस्त करते हैं । रागपूर्वक किये गये कर्मों का फलविपाक पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं-यह सब (भगवान ने) आख्यात किया।
आगे भगवान ने बतलाया-धर्म दो प्रकार का है-अगार-धर्म और अनगार-धर्म | अनगार-धर्म में साधक सर्वतः सर्वात्मना, सर्वात्मभाव से सावध कार्यों का परित्याग करता हुआ मुण्डित होकर, गृहवास से अनगार दशा में प्रव्रजित होता है । वह संपूर्णतः प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्ता-दान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि-भोजन से विरत होता है। भगवान ने कहा-आयुष्मान् ! यह अनगारों के लिए समाचरणीय धर्म कहा गया है । इस धर्म की शिक्षा या आचरण में उपस्थित रहते हुए निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी साध्वी आज्ञा के आराधक होते हैं।
भगवान ने अगारधर्म १२ प्रकार का बतलाया-५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत तथा ४ शिक्षाव्रत । ५ अणुव्रत इस प्रकार हैं-१. स्थूल प्राणातिपात से निवृत्त होना, २. स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना, ३. स्थूल अदत्तादन से निवृत्त होना, ४. स्वदारसंतोष मैथुन की सीमा, ५. परिग्रह की ईच्छा का परिमाण । ३ गुणव्रत इस प्रकार हैं-अनर्थदंडविरमण, २. दिग्व्रत, ३. उपभोग-परिभोग-परिमाण । ४ शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं-१. सामायिक, २. देशावकाशिक, ३. पोषधोपवास, ४. अतिथि-संविभाग। तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखणा भगवान ने कहा-आयुष्यमान्! यह गृही साधकों का आचरणीय धर्म है । इस धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक-श्रावक या श्रमणोपासिका-श्राविका आज्ञा के आराधक होते हैं। सूत्र - ४१
तब वह विशाल मनुष्य-परिषद् श्रमण भगवान महावीर से धर्म सूनकर, हृदय में धारण कर, हृष्ट-तुष्ट हुई, चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव किया, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर उठी । उठकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा, वंदन-नमस्कार किया, उनमें से कईं गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर, मुण्डित होकर, अनगार या श्रमण के रूप में प्रव्रजित हुए । कइयों ने पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहीधर्म स्वीकार किया । शेष परिषद् ने भगवान महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया-भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात, सुप्रज्ञप्त, सुभाषित, सुविनीत, सुभावित, निर्ग्रन्थ प्रवचन अनुत्तर है। आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम का विश्लेषण किया । उपशम की व्याख्या करते हुए
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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