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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' | वे सभी अलंकारों से विभूषित हुईं । फिर बहुत सी देश-विदेश की दासियों, जिनमें से अनेक कुबड़ी थीं; अनेक किरात देश की थी, अनेक बौनी थीं, अनेक ऐसी थीं, जिनकी कमर झुकी थीं, अनेक बर्बर देश की, बकुश देश की, यूनान देश की, पह्लव देश की, इसिन देश की, चारुकिनिक देश की, लासक देश की, लकुश देश की, सिंहल देश की, द्रविड़ देश की, अरब देश की, पुलिन्द देश की, पक्कण देश की, बहल देश की, मुरुंड देश की, शबर देश की, पारस देश की-यों विभिन्न देशों की थीं जो स्वदेशी वेशभूषा से सज्जित थीं, जो चिन्तित और अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में विज्ञ थीं, अपने अपने देश के रीति-रिवाज के अनुरूप जिन्होंने वस्त्र आदि धारण कर रखे थे, ऐसी दासियों के समूह से घिरी हुई, वर्षधरों, कंचुकियों तथा अन्तःपुर के प्रामाणिक रक्षाधिकारियों से घिरी हुई बाहर नीकलीं ।अन्तःपुर से नीकल कर सुभद्रा आदि रानियाँ, जहाँ उनके लिए अलग-अलग रथ खड़े थे, वहाँ आई । अपने अलग-अलग अवस्थित यात्राभिमुख, जुते हुए रथों पर सवार हुईं।
अपने परिजन वर्ग आदि से घिरी हुई चम्पानगरी के बीच से नीकलीं । जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आईं। श्रमण भगवान महावीर के न अधिक दूर, न अधिक निकट ठहरी । तीर्थंकरों के छत्र आदि अतिशयों को देखा । देखकर अपने अपने रथों को रुकवाया । रथों से नीचे उतरीं । अपनी बहुत सी कुब्जा आदि पूर्वोक्त दासियों से घिरी हुई बाहर नीकलीं । जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आई । भगवान के निकट जाने हेतु पाँच प्रकार के अभिगमन जैसे सचित्त पदार्थों का व्युत्सर्जन करना, अचित्त पदार्थों का अव्युत्सर्जन, देह को विनय से नम्र करना, भगवान की दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना तथा मन को एकाग्र करना । फिर उन्होंने तीन बार भगवान महावीर को आदक्षिण-प्रदक्षिणा दी । वैसा कर वन्दन-नमस्कार किया । वे अपने पति महाराज कूणिक को आगे कर अपने परिजनों सहित भगवान के सन्मुख विनय-पूर्वक हाथ जोड़े पर्युपासना करने लगीं। सूत्र-३४
तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने भंभसारपुत्र राजा कूणिक, सुभद्रा आदि रानियों तथा महती परिषद को धर्मोपदेश किया । भगवान महावीर की धर्मदेशना सूनने को उपस्थित परिषद् में, अतिशय ज्ञानी साधु, मुनि, यति, देवगण तथा सैकड़ों-सैकड़ों श्रोताओं के समूह उपस्थित थे। ओघबली, अतिबली, महाबली, अपरिमित बल, तेज, महत्ता तथा कांतियुक्त, शरत् काल के नूतन मेघ के गर्जन, क्रौंच पक्षी के निर्घोष तथा नगारे की ध्वनि समान मधुर गंभीर स्वरयुक्त भगवान महावीर ने हृदय में विस्तृत होती हुई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मूर्धा में परिव्याप्त होती हुई सुविभक्त अक्षरों को लिए हुए, अस्पष्ट उच्चारणवर्जित या हकलाहट से रहित, सुव्यक्त अक्षर वर्गों की व्यवस्थित श्रृंखला लिए हुए, पूर्णता तथा स्वरमाधुरी युक्त, श्रोताओं की सभी भाषाओं में परिणत होने वाली, एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर में, अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का परिकथन किया । उपस्थित सभी आर्य-अनार्य जनों को अग्लान भाव से धर्म का व्याख्यान किया । भगवान द्वारा उद्गीर्ण अर्द्ध मागधी भाषा उन सभी आर्यों और अनार्यों की भाषाओं में परिणत हो गईं।
भगवान ने जो धर्मदेशना दी, वह इस प्रकार है-लोक का अस्तित्व है, अलोक का अस्तित्व है । इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अर्हत्, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंचयोनि, तिर्यचयोनिक जीव, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण का अस्तित्व है । प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शनशल्य है। प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहविरमण,क्रोध से, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक होना और त्यागना यह सब है-सभी अस्तिभाव हैं। सभी नास्तिभाव हैं। सुचीर्ण, रूपमें संपादित दान, शील, तप आदि कर्म उत्तम फल देनेवाले हैं तथा दुश्चीर्ण दुःखमय फल देनेवाले हैं । जीव पुण्य तथा पाप का स्पर्श करता है, बन्ध करता है । जीव उत्पन्न होते हैं-शुभ कर्म अशुभ कर्म फल युक्त हैं, निष्फल नहीं होते । प्रकारान्तर से भगवान धर्म का आख्यान करते हैं
यह निर्ग्रन्थप्रवचन, जिनशासन अथवा प्राणी की अन्त-वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ाने वाला आत्मानुशासनमय उपदेश सत्य है, अनुत्तर है, केवल है, संशुद्ध है, प्रतिपूर्ण है, नैयायिक है-प्रमाण से अबाधित है तथा शल्य-कर्तन है, यह सिद्धि मार्ग है, मुक्ति हेतु है, निर्वाण पथ है, निर्याण-मार्ग है, अवितथ, अविसन्धि का मार्ग है । इसमें स्थित
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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