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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' ऊपर सफेद छत्र तना था । चंवर ढोले जा रहे थे । वह सब प्रकार की समृद्धि, सब प्रकार की द्युति, सब प्रकार के सैन्य, सभी परिजन, समादरपूर्ण प्रयत्न, सर्व विभूति, सर्वविभूषा, सर्वसम्भ्रम, सर्व-पुष्प गन्धमाल्यालंकार, सर्व तूर्य शब्द सन्निपात, महाऋद्धि, महाद्युति, महाबल, अपने विशिष्ट पारिवारिक जन-समुदाय से सुशोभित था तथा शंख, पणव, पटह, छोटे ढोल, भेरी, झालर, खरमुही, हुडुक्क, मुरज, मृदंग तथा दुन्दुभि एक साथ विशेष रूप से बजाए जा रहे थे। सूत्र-३२
जब राजा कूणिक चम्पा नगरी के बीच से गुजर रहा था, बहुत से अभ्यर्थी, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, किल्बिषिक, कापालिक, करबाधित, शांखिक, चाक्रिक, लांगलिक, मुखमांगलिक, वर्धमान, पूष्यमानव, खंडिकगण, इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, मनोभिराम, हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाली वाणी से एवं जय विजय आदि सैकड़ों मांगलिक शब्दों से राजा का अनवरत अभिनन्दन करते हुए, अभिस्तवन करते हुए इस प्रकार बोलेजन-जन को आनन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय हो, आपकी जय हो । जन-जन के लिए कल्याण-स्वरूप राजन् ! आप सदा जयशील हो । आपका कल्याण हो । जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें। जिनको जीत लिया है उनका पालन करें । उनके बीच निवास करें । देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागों में धरणेन्द्र की तरह, तारों में चन्द्रमा की तरह, मनुष्यों में चक्रवती भरत की तरह आप अनेक वर्षों तक, अनेक शतवर्षों तक, अनेह सहस्रवर्षों तक, अनेक लक्ष वर्षों तक अनघसमग्र सर्वथा सम्पन्न, हृष्ट, तुष्ट रहें, उत्कृष्ट आयु प्राप्त करें। आप अपने प्रियजन सहित चम्पानगरीके तथा अन्य बहुत से ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोण-मुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संवाह, सन्निवेश, इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञेश्वरत्व-सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करते हुए निर्बाध अविच्छिन्न रूप में नृत्य, गीत, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य एवं घनमृदंग के निपुणतापूर्ण प्रयोग द्वारा नीकलती सुन्दर ध्वनियों से आनन्दित होते हुए, विपुल अत्यधिक भोग भोगते हुए सुखी रहें, यों कहकर उन्होंने जय-घोष किया।
भंभसार के पुत्र राजा कूणिक का सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार दर्शन कर रहे थे, हृदय से उसका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे, अपने शुभ मनोरथ लिये हुए थे, उसका बार-बार अभिस्तवन कर रहे थे, उसकी कान्ति, उत्तम सौभाग्य आदि गुणों के कारण ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे । नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला को अपना दाहिना हाथ ऊंचा उठाकर बारबार स्वीकार करता हुआ, अत्यन्त कोमल वाणी से उनका कुशल पूछता हुआ, घरों की हजारों पंक्तियों को लांघता हुआ राजा कूणिक चम्पा नगरी के बीच से नीकला । जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आया । भगवान के न अधिक दूर न अधिक निकट रुका । तीर्थंकरों के छत्र आदि अतिशयों को देखा । देखकर अपनी सवारी के प्रमुख उत्तम हाथी को ठहराया, हाथी से नीचे उतरा, तलवार, छत्र, मुकूट, चंवर-इन राजचिह्नों को अलग किया, जूते उतारे । भगवान महावीर जहाँ थे, वहाँ आया । आकर, सचित्त का व्युत्सर्जन, अचित्त का अव्युत्सर्जन, अखण्ड वस्त्र का उत्तरासंग, दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना, मन को एकाग्र करना-इन पाँच नियमों के अनुपालनपूर्वक राजा कूणिक भगवान के सम्मुख आया । भगवान को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया । कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से पर्युपासना की । कायिक पर्युपासना के रूप में हाथों-पैरों को संकुचित किये हुए शुश्रूषा करते हुए, नमन करते हुए भगवान की ओर मुँह किये, विनय से हाथ जोड़े हुए स्थित रहा । वाचिक पर्युपासना के रूप में-जो-जो भगवान बोलते थे, उसके लिए यह ऐसा ही है भन्ते ! यही तथ्य है भगवन् ! यही सत्य है प्रभो ! यही सन्देह-रहित है स्वामी ! यही ईच्छित है भन्ते ! यही प्रतीच्छित है, प्रभो ! यही ईच्छित-प्रतीच्छित है, भन्ते ! जैसा आप कह रहे हैं ।'' इस प्रकार अनुकूल वचन बोलता, मानसिक पर्युपासना के रूप में अपने में अत्यन्त संवेग उत्पन्न करता हुआ तीव्र धर्मानुराग से अनुरक्त रहा। सूत्र-३३
तब सुभद्रा आदि रानियों ने अन्तःपुर में स्नान किया, नित्य कार्य किये । कौतुक की दृष्टि से आँखों में काजल आंजा, लालट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्त हेतु चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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