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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' गजपति पर वह नरपति आरूढ़ हुआ।
तब भंभसार के पुत्र राजा कूणिक के प्रधान हाथी पर सवार हो जाने पर सबसे पहले स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य तथा दर्पण-ये आठ मंगल क्रमशः चले । उसके बाद जल से परिपूर्ण कलश, झारियाँ, दिव्य छत्र, पताका, चंवर तथा दर्शन-रचित-राजा के दृष्टिपथ में अवस्थित, दर्शनीय, हवा से फहराती, उच्छित, मानो आकाश को छूती हुई सी विजय-वैजयन्ती-विजय-ध्वजा लिये राजपुरुष चले । तदनन्तर वैडूर्य से देदीप्यमान उज्ज्वल दंडयुक्त, लटकती हुई कोरंट पुरुषों की मालाओं से सुशोभित, चन्द्रमंडल के सदृश आभामय, समुर्छित, आतपत्र, छत्र, अति उत्तम सिंहासन, श्रेष्ठ मणि-रत्नों से विभूषित, जिस पर राजा की पादुकाओं की जोड़ी रखी थी, वह पादपीठ, चौकी, जो किङ्करों, विभिन्न कार्यों में नियुक्त भृत्यों तथा पदातियों से घिरे हुए थे, क्रमशः आगे रवाना हुए।
बहुत से लष्टिग्राह, कुन्तग्राह, चाचग्राह, चमरग्राह, पाशग्राह, पुस्तकग्राह, फलकग्राह, पीठग्राह, वीणाग्राह, कूप्यग्राह, हडप्पयग्राह, यथाक्रम आगे रवाना हुए । उसके बाद बहत से दण्डी, मुण्डी, शिखण्डी, जटी, पिच्छी, हासकर
कर, विदूषक, डमरकर, चाटकर, वादकर, कन्दर्पकर, दवकर, कौत्कुचिक, क्रीडाकर, इनमें से कतिपय बजाते हुए, गाते हुए, हँसते हुए, नाचते हुए, बोलते हुए, सूनाते हुए, रक्षा करते हुए, अवलोकन करते हुए, तथा जय शब्द का प्रयोग करते हुए यथाक्रम आगे बढ़े । तदनन्तर जात्य, एक सौ आठ घोड़े यथाक्रम रवाना किये गये । वे वेग, शक्ति और स्फूर्तिमय वय में स्थित थे। हरिमेला नामक वृक्ष की कली तथा मल्लिका जैसी उनकी आँखें थीं। तोते की चोंच की तरह वक्र पैर उठाकर वे शान से चल रहे थे । वे चपल, चंचल चाल लिये हुए थे । गड्ढे आदि लांघना, ऊंचा कूदना, तेजी से सीधा दौड़ना, चतुराई से दौड़ना, भूमि पर तीन पैर टिकाना, जयिनी संज्ञक सर्वातिशयिनी तेज गति से दौड़ना, चलना इत्यादि विशिष्ट गतिक्रम वे सीखे हुए थे । उनके गले में पहने हुए, श्रेष्ठ आभूषण लटक रहे थे । मुख के आभूषण अवचूलक, दर्पण की आकृतियुक्त विशेष अलंकार, अभिलान बड़े सुन्दर दिखाई देते थे । उनके कटिभाग चामर-दंड़ से सुशोभित थे । सुन्दर, तरुण सेवक उन्हें थामे हुए थे।
तत्पश्चात् यथाक्रम एक सौ आठ हाथी रवाना किये गये । वे कुछ कुछ मत्त-एवं उन्नत थे । उनके दाँत कुछ कुछ बाहर नीकले हुए थे । दाँतों के पीछले भाग कुछ विशाल थे, धवल थे । उन पर सोने के खोल चढ़े थे । वे हाथी स्वर्ण, मणि तथा रत्नों से शोभित थे । उत्तम, सुयोग्य महावत उन्हें चला रहे थे । उसके बाद एक सौ आठ रथ यथाक्रम रवाना किये गये । वे छत्र, ध्वज, पताका, घण्टे, सुन्दर तोरण, नन्दिघोष से युक्त थे । छोटी छोटी घंटियों से युक्त जाल उन पर फैलाये हुए थे । हिमालय पर्वत पर उत्पन्न तिनिश का काठ, जो स्वर्ण-खचित था, उन रथों में लगा था । रथों के पहियों के घेरों पर लोहे के पट्टे चढ़ाये हुए थे । पहियों की धुराएं गोल थी, सुन्दर, सुदृढ़ बनी थीं। उनमें छंटे हुए, उत्तम श्रेणी के घोड़े जुते थे । सुयोग्य, सुशिक्षित सारथियों ने उनकी बागडोर सम्हाल रखी थी । वे
तरकशों से सुशोभित थे । कवच, शिरस्राण, धनुष, बाण तथा अन्यान्य शस्त्र रखे थे। इस प्रकार वे युद्धसामग्री से सुसज्जित थे। तदनन्तर हाथों में तलवारें, शक्तियाँ, कुन्त, तोमर, शूल, लट्टियाँ, भिन्दिमाल तथा धनुष धारण किये हुए सैनिक क्रमशः रवाना हुए।
तब नरसिंह, नरपति, परिपालक, नरेन्द्र, परम ऐश्वर्यशाली अधिपति, नरवृषभ, मनुजराजवृषभ, उत्तर भारत के आधे भाग को साधने में संप्रवृत्त, भंभसारपुत्र राजा कूणिक ने जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ जाने का
चार किया, प्रस्थान किया । अश्व, हस्ती, रथ एवं पैदल-इस प्रकार चतुरंगिणी सेना उसके पीछे-पीछे चल रही थी। राजा का वक्षःस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित तथा प्रीतिकार था । उसका मुख कुण्डलों से उद्योतित था । मस्तक मुकूट से देदीप्यमान था । राजोचित तेजस्वितारूप लक्ष्मी से वह अत्यन्त दीप्तिमय था । वह उत्तम हाथी पर आरूढ़ हुआ । कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था । श्रेष्ठ, श्वेत चंवर डुलाये जा रहे थे। वैश्रमण, नरपति, अमरपति के तुल्य उसकी समृद्धि सुप्रशस्त थी, जिससे उसकी कीर्ति विश्रुत थी।
भंभसार के पुत्र राजा कूणिक के आगे बड़े बड़े घोड़े और घुड़सवार थे । दोनों ओर हाथी तथा हाथियों पर सवार पुरुष थे । पीछे रथ-समुदाय था । तदनन्तर भंभसार का पुत्र राजा कूणिक चम्पा नगरी के बीचोंबीच होता हुआ आगे बढ़ा । उसके आगे आगे जल से भरी झारियाँ लिये पुरुष चल रहे थे । सेवक दोनों ओर पंखे झल रहे थे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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