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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' भंभसार का पुत्र राजा कूणिक जहाँ था, वह वहाँ आया । आकर हाथ जोड़े, राजा से निवेदन किया-देवानुप्रिय ! आभिषेक्य हस्तिरत्न तैयार है, घोड़े हाथी, रथ, उत्तम योद्धाओं से परिगठित चतुरंगिणी सेना सन्नद्ध है । सुभद्रा आदि रानियों के लिए, प्रत्येक के लिए अलग-अलग जते हए यात्राभिमख यान बाहरी सभा-भवन के नि उपस्थापित हैं | चम्पानगरी की भीतर और बाहर से सफाई करवा दी गई है, पानी का छिड़काव करवा दिया गया है, वह सुगंध से महक रही है । देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर के अभिवन्दन हेतु आप पधारें। सूत्र - ३१
भंभसार के पुत्र राजा कूणिक ने सेनानायक से यह सूना । वह प्रसन्न एवं परितुष्ट हुआ । जहाँ व्यायामशाला थी, वहाँ आया । व्यायामशाला में प्रवेश किया । अनेक प्रकार से व्यायाम किया | अंगों को खींचना, उछलना -कूदना, अंगों को मोड़ना, कुश्ती लड़ना, व्यायाम के उपकरण आदि घुमाना-इत्यादि द्वारा अपने को श्रान्त, परि-श्रान्त किया, फिर प्रीणनीय रस, रक्त आदि धातुओं में समता-निष्पादक, दर्पणीय, मदनीय, बृहणीय, आह्लाद-जनक, शतपाक, सहस्रपाक सुगंधित तैलों, अभ्यंगों आदि द्वारा शरीर को मसलवाया । फिर तैलचर्म पर, तैल मालिश किये हुए पुरुष को जिस पर बिठाकर संवाहन किया जाता है, देहचंपी की जाती है, स्थित होकर ऐसे पुरुषों द्वारा, जिनके हाथों और पैरों के तलुए अत्यन्त सुकुमार तथा कोमल थे, जो छेक, कलाविद, दक्ष, प्राप्तार्थ, कुशल, मेधावी, संवाहन-कला में निपुण, अभ्यंगन, उबटन आदि के मर्दन, परिमर्दन, उद्धलन, हड्डियों के लिए सुखप्रद, माँस के लिए सुखप्रद, चमड़ी के लिए सुखप्रद तथा रोओं के लिए सुखप्रद-यों चार प्रकार से मालिश व देहचंपी करवाई, शरीर को दबवाया।
इस प्रकार थकावट, व्यायामजनित परिश्रान्ति दूर कर राजा व्यायामशाला से बाहर नीकला । जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया । स्नानघर में प्रविष्ट हुआ । वह मोतियों से बनी जालियों द्वारा सुन्दर लगता था । उसका प्रांगण तरह-तरह की मणि, रत्नों से खचित था । उसमें रमणीय स्नान-मंडप था । उसकी भीतों पर अनेक प्रकार की मणियों तथा रत्नों को चित्रात्मक रूप में जड़ा गया था । ऐसे स्नानघर में प्रविष्ट होकर राजा वहाँ स्नान हेतु अवस्थापित चौकी पर सुखपूर्वक बैठा । शुद्ध, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों के रस से मिश्रित, पुष्परस-मिश्रित सुखप्रद-न ज्यादा उष्ण, न ज्यादा शीतल जल से आनन्दप्रद, अतीव उत्तम स्नान-विधि द्वारा पुनः पुनः-अच्छी तरह स्नान किया । स्नान के अनन्तर राजा ने दृष्टिदोष, नजर आदि के निवारण हेतु रक्षाबन्धन आदि के रूप में अनेक, सैकड़ों विधि-विधान संपादित किए । तत्पश्चात् रोएंदार, सुकोमल, काषायित वस्त्र से शरीर को पोंछा । सरस, सुगन्धित गोरोचन तथा चन्दन का देह पर लेप किया । अदूषित, चूहों आदि द्वारा नहीं कतरे हुए, निर्मल, दूष्यरत्न भली भाँति पहने । पवित्र माला धारण की । केसर आदि का विलेपन किया । मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने । हार, अर्धहार तथा तीन लड़ों के हार और लम्बे, लटकते कटिसूत्र से अपने को सुशोभित कि गले के आभरण धारण किए । अंगुलियों में अंगुठियाँ पहनीं । इस प्रकार अपने सुन्दर अंगों को सुन्दर आभूषणों से विभूषित किया । उत्तम कंकणों तथा त्रुटितों-भुजबंधों द्वारा भुजाओं को स्तम्भित किया । यों राजा की शोभा अधक बढ़ गई । मुद्रिकाओं के कारण राजा की अंगुठियाँ पीली लग रही थी । कुंडलों से मुख उद्योतित था । मुकूट से मस्तक दीप्त था।
हारों से ढका हुआ उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था । राजा ने एक लम्बे, लटकते हुए वस्त्र को उत्तरीय के रूप में धारण किया । सुयोग्य शिल्पियों द्वारा मणि, स्वर्ण, रत्न-इनके योग से सुरचित विमल, महार्ह, सुश्लिष्ट, विशिष्ट, प्रशस्त, वीरवलय धारण किया । अधिक क्या कहें, इस प्रकार अलंकृत, विभूषित, विशिष्ट सज्जायुक्त राजा ऐसा लगता था, मानों कल्पवृक्ष हो । अपने ऊपर लगाये गये कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र, दोनों ओर डुलाये जाते चार चंवर, देखते ही लोगों द्वारा किये गये मंगलमय जय शब्द के साथ राजा स्नान-गृह से बाहर नीकला । अनेक गणनायक, दण्डनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत, सन्धिपाल, इन सबसे घिरा हुआ वह राजा धवल महामेघ विशाल बादल से नीकले नक्षत्रों, आकाश को देदीप्यमान करते तारों के मध्यवर्ती चन्द्र के सदृश देखने में बड़ा प्रिय लगता था । वह, जहाँ बाहरी सभा-भवन था, प्रधान हाथी था, वहाँ आया । वहाँ आकर अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल, उच्च
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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