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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' डुलनेवाले अथवा जिन्हें त्रास का वेदन करते हुए अनुभव किया जा सके, वैसे जीवों का प्रायः घात करता है क्या वह मृत्यु-काल आने पर मरकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! ऐसा होता है । भगवन् ! जिन्होंने संयम नहीं साधा, जो अवरित हैं, जिन्होंने प्रत्याख्यान द्वारा पाप-कर्मों को प्रतिहत नहीं किया, वे यहाँ से च्युत होकर आगे के जन्म में क्या देव होते हैं ? गौतम ! कईं देव होते हैं, कईं देव नहीं होते हैं। भगवन् ! आप किस अभिप्राय से ऐसा कहते हैं कि कईं देव होते हैं, कईं देव नहीं होते ? गौतम ! जो जीव मोक्ष की अभिलाषा के बिना या कर्म-क्षय के लक्ष्य के बिना ग्राम, आकर, नगर, खेट, गाँव, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संवाह, सन्निवेश में तृषा, क्षुधा, ब्रह्मचर्य, अस्नान, शीत, आतप, डांस, स्वेद, जल्ल, मल्ल, पंक इन परितापों से अपने आपको थोड़ा या अधिक क्लेश देते हैं, कुछ समय तक अपने आप को क्लेशित कर मृत्यु का समय आने पर देह का त्याग कर वे वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी लोक में देव के रूप में पैदा होते हैं । वहाँ उनकी अपनी विशेष गति, स्थिति तथा उपपात होता है । भगवन् ! वहाँ उन देवों की स्थिति-आयु कितने समय की बतलाई गई है ? गौतम ! वहाँ उनकी स्थिति दस हजार वर्ष की बतलायी गई है । भगवन् ! क्या उन देवों की ऋद्धि, परिवार आदि संपत्ति, द्युति, यशकीर्ति, बल, वीर्य, पुरुषकार, तथा पराक्रम-ये सब अपनी अपनी विशेषता के साथ होते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा होता है । भगवन् ! क्या वे देव परलोक के आराधक होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता।
जो (ये) जीव ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संवाह, सन्निवेश, मनुष्य के रूप में जन्म लेते हैं, जिनके किसी अपराध के कारण काठ या लोहे के बंधन से हाथ पैर बाँध दिये जाते हैं. जो बेडियों से जकड दिये जाते हैं, जिनके पैर काठ के खोड़े में डाल दिये जाते हैं, जो कारागार में बंद कर दिये जाते हैं, जिनके हाथ, पैर, कान, नाक हैं, होठ, जिह्वाएं, मस्तक, मुँह, बायें कन्धे से लेकर दाहिनी काँख तक के देह-भाग मस्तक सहित विदीर्ण कर दिये जाते हैं, हृदय चीर दिये जाते हैं, आँखे नीकाल ली जाती हैं, दाँत तोड़ दिये जाते हैं, जिनके अंडकोष उखाड़ दिये जाते हैं, गर्दन तोड़ दी जाती है, चावलों की तरह जिनके शरीर के टुकड़ेटुकड़े कर दिये जाते हैं, जिनके शरीर का कोमल मांस उखाड़ कर जिन्हें खिलाया जाता है, जो रस्सी से बाँध कर कुए खड्डे आदि में लटका दिये जाते हैं, वृक्ष की शाखा में हाथ बाँध कर लटका दिये जाते हैं, चन्दन की तरह पथ्थर आदि पर घिस दिये जाते हैं, पात्र-स्थित दहीं की तरह जो मथ दिये जाते हैं, काठ की तरह कुल्हाड़े से फाड़ दिये जाते हैं, जो गन्ने की तरह कोल्हू में पेल दिये जाते हैं, जो सूली में पिरो दिये जाते हैं, जो सूली से बींध दिये जाते हैंजिनके देह से लेकर मस्तक में से सूली नीकाल दी जाती है, जो खार के बर्तन में डाल दिये जाते हैं, जो-गीले चमड़े से बाँध दिये जाते हैं, जिनके जननेन्द्रिय काट दिये जाते हैं, जो दवाग्नि में जल जाते हैं, कीचड़ में डूब जाते हैं।
संयम से भ्रष्ट होकर या भख आदि से पीडित होकर मरते हैं, जो विषय-परतन्त्रता से पीडित या द:खित होकर मरते हैं, जो सांसारिक ईच्छा पूर्ति के संकल्प के साथ अज्ञानमय तपपूर्वक मरते हैं, जो अन्तःशल्य को नीकाले बिना या भाले आदि से अपने आपको बेधकर मरते हैं, जो पर्वत से गिरकर मरते हैं, जो वृक्ष से गिरकर, मरुस्थल या निर्जल प्रदेश में, जो पर्वत से झंपापात कर, वृक्ष से छलांग लगा कर, मरुभूमि की बालू में गिरकर, जल में प्रवेश कर, अग्नि में प्रवेश कर, जहर खाकर, शस्त्रों से अपने को विदीर्ण कर और वृक्ष की डाली आदि से लटक कर फाँसी लगाकर मरते हैं, जो मरे हुए मनुष्य, हाथी, ऊंट, गधे आदि की देह में प्रविष्ट होकर गीधों की चांचों से विदारित होकर मरते हैं, जो जंगल में खोकर मर जाते हैं, दुर्भिक्ष में भूख, प्यास आदि से मर जाते हैं, यदि उनके परिणाम संक्लिष्ट हों तो उस प्रकार मृत्यु प्राप्त कर वे वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ उस लोक के अनुरूप उनकी गति, स्थिति तथा उत्पत्ति होती है, ऐसा बतलाया गया है । भगवन् ! उन देवों की वहाँ कितनी स्थिति होती है ? गौतम ! वहाँ उनकी स्थिति बारह हजार वर्ष की होती है । भगवन् ! उन देवों के वहाँ ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य तथा पुरुषकार-पराक्रम होता है या नहीं? गौतम ! होता है। भगवन् ! क्या वे देव परलोक के आराधक होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता।
(वे) जो जीव ग्राम, आकर यावत् सन्निवेश में मनुष्यरूप में उत्पन्न होते हैं, जो प्रकृतिभद्र, शान्त, स्वभावतः क्रोध, मान, माया एवं लोभ की प्रतनुता लिये हुए, मृदु मार्दवसम्पन्न, स्वभावयुक्त, आलीन, आज्ञापालक, विनीत, माता-पिता की सेवा करने वाले, माता-पिता के वचनों का अतिक्रमण नहीं करने वाले, अल्पेच्छा, आवश्यकताएं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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