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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' भ्रमण करता हुआ, चपल होता हुआ, ऊपर उछलता हुआ, नीचे गिरता हुआ विद्यमान है । अपने में स्थित प्रमादरूप प्रचण्ड, अत्यन्त दुष्ट, नीचे गिरते हुए, बुरी तरह चीखते-चिल्लाते हुए क्षुद्र जीव-समूहों से यह (समुद्र) व्याप्त है। वही मानो उसका भयावह घोष या गर्जन है । अज्ञान ही भव-सागर में घूमते हुए मत्स्यों रूप में है । अनुपशान्त इन्द्रिय-समूह उसमें बड़े-बड़े मगरमच्छ हैं, जिनके त्वरापूर्वक चलते रहने से जल, क्षुब्ध हो रहा है, नृत्य सा कर रहा है, चपलता-चंचलतापूर्वक चल रहा है, घूम रहा है । यह संसार रूप सागर अरति, भय, विषाद, शोक तथा मिथ्यात्व रूप पर्वतों से संकुल है । यह अनादि काल से चले आ रहे कर्म-बंधन, तत्प्रसूत क्लेश रूप कर्दम के कारण अत्यन्त दुस्तर है । यह देव-गति, मनुष्य-गति, तिर्यक्-गति तथा नरक-गति में गमनरूप कुटिल परिवर्त है, विपुल ज्वार रहित है। चार गतियों के रूपमें इसके चार अन्त हैं । यह विशाल, अनन्त, रौद्र तथा भयानक दिखाई देनेवाला है। इस संसार-सागर को वे शीलसम्पन्न अनगार संयमरूप जहाज द्वारा शीघ्रतापूर्वक पार कर रहे थे।
वह (संयम-पोत) धृति, सहिष्णुता रूप रज्जू से बँधा होने के कारण निष्प्रकम्प था । संवर तथा वैराग्य रूप उच्च कूपक था । उस जहाज में ज्ञान रूप श्वेत वस्त्र का ऊंचा पाल तना हुआ था । विशुद्ध सम्यक्त्व रूप कर्णधार उसे प्राप्त था । वह प्रशस्त ध्यान तथा तप रूप वायु से अनुप्रेरित होता हुआ प्रधावित हो रहा था । उसमें उद्यम, व्यवसाय, तथा परखपूर्वक गृहीत निर्जरा, यतना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन (चारित्र) तथा विशुद्ध व्रत रूप श्रेष्ठ माल भरा था । वीतराग प्रभु के वचनों द्वारा उपदिष्ट शुद्ध मार्ग से वे श्रमण रूप उत्तम सार्थवाह, सिद्धिरूप महापट्टन की
ओर बढ़े जा रहे थे । वे सम्यक् श्रुत, उत्तम संभाषण, प्रश्न तथा उत्तम आकांक्षा-वे अनगार ग्रामों में एक-एक रात तथा नगरों में पाँच-पाँच रात रहते हुए जितेन्द्रिय, निर्भय, गतभय, सचित्त, अचित्त, मिश्रित, द्रव्यों में वैराग्ययुक्त, संयत, विरत, अनुरागशील, मुक्त, लघुक, निरवकांक्ष, साधु, एवं निभृत होकर धर्म आराधना करते थे सूत्र-२२
उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के पास अनेक असुरकुमार देव प्रादुर्भुत हए । काले महानीलमणि, नीलमणि, नील की गुटका, भैंसे के सींग तथा अलसी के पुष्प जैसा उसका काला वर्ण तथा दीप्ति थी। उनके नेत्र खिले हुए कमल सदृश थे । नेत्रों की भौहें निर्मल थीं। उनके नेत्रों का वर्ण कुछ-कुछ सफेद, लाल तथा ताम्र जैसा था । उनकी नासिकाएं गरुड के सदृश, लम्बी, सीधी तथा उन्नत थी। उनके होठ परितुष्ट मूंगे एवं बिम्ब फल के समान लाल थे । उनकी दन्तपंक्तियाँ स्वच्छ चन्द्रमा के टुकड़ों जैसी उज्ज्वल तथा शंख, गाय के दूध के जाग, जलकण एवं कमलनाल के सदृश धवल थीं। उनकी हथेलियाँ, पैरों के तलवे, तालु तथा जिह्वा-अग्नि में गर्म किये हुए, धोये हुए पुनः तपाये हुए, शोधित किये हुए निर्मल स्वर्ण के समान लालिमा लिये हुए थे । उनके केश काजल तथा मेघ के सदृश काले तथा रुचक मणि के समान रमणीय और स्निग्ध, मुलायम थे ।
उनके बायें कानों में एक-एक कुण्डल था । शरीर आर्द्र चन्दन से लिप्त थे । सीलघ्र-पुष्प जैसे कुछ-कुछ श्वेत या लालिमा लिये हुए श्वेत, सूक्ष्म, असंक्लिष्ट, वस्त्र सुन्दर रूप में पहन रखे थे । वे बाल्यावस्था को पार कर चूके थे, मध्यम वय नहीं प्राप्त किये हुए थे, भद्र यौवन किशोरावस्था में विद्यमान थे। उनकी भुजाएं तलभंगकों, त्रुटिकाओं, अन्यान्य उत्तम आभूषणों तथा निर्मल रत्नों, मणियों से सुशोभित थीं । हाथों की दशों अंगुलियाँ, अंगुठियों से मंडित थीं । मुकुटों पर चूडामणि रूप में विशेष चिह्न थे । वे सुरूप, पर ऋद्धिशाली, परत द्युतिमान, अत्यन्त बलशाली, परम यशस्वी, परम सुखी तथा अत्यन्त सौभाग्यशाली थे । उनके वक्षःस्थलों पर हार सुशोभित हो रहे थे । वे अपनी भुजाओं पर कंकण तथा भुजाओं को सुस्थिर बनाये रखनेवाली आभरणात्मक पट्टियाँ एवं अंगद धारण किये हुए थे । केसर, कस्तूरी आदिसे मण्डित कपोलों पर कुंडल व अन्य कर्णभूषण शोभित थे।
वे विचित्र, हस्ताभरण धारण किये हुए थे। उनके मस्तकों पर तरह-तरह की मालाओं से युक्त मुकूट थे । वे कल्याणकृत, अनुपहत, प्रवर पोशाक पहने हुए थे । वे मंगलमय, उत्तम मालाओं एवं अनुलेपन से युक्त थे । उनके शरीर देदीप्यमान थे । वनमालाएं उनके गलों से घुटनों तक लटकती थीं। उन्होंने दिव्य-वर्ण, गन्ध, रूप, स्पर्श, संघात, संस्थान, ऋद्धि, द्युति, प्रभा, कान्ति, अर्चि, तेज, लेश्या-तदनुरूप प्रभामंडल से दशों दिशाओं को उद्योतित, प्रभासित करते हुए श्रमण भगवान महावीर के समीप आ-आकर अनुरागपूर्वक तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया । वैसा कर वे भगवान महावीर के न अधिक समीप, न अधिक दूर सुनने की ईच्छा रखते
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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