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________________ आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' रौद्रध्यान चार प्रकार का है, इस प्रकार है-१. हिंसानुबन्धी, २. मृषानुबन्धी, ३. स्तैन्यानुबन्धी, ४. संरक्षणा नुबन्धी, रौद्र ध्यान के चार लक्षण बतलाये गये हैं-१. उत्सन्नदोष, २. बहुदोष, ३. अज्ञानदोष, ४. आमरणान्त-दोष धर्म ध्यान स्वरूप, लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षा भेद से चार प्रकार का कहा गया है । प्रत्येक के चारचार भेद हैं | स्वरूप की दृष्टि से धर्म-ध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं-१. आज्ञा-विचय, २. अपाय-विचय, ३. विपाक-विचय, ४. संस्थान-विचय, धर्म-ध्यान के चार लक्षण बतलाये गये हैं । वे इस प्रकार हैं-१. आज्ञा-रुचि, २. निसर्ग-रुचि, ३. उपदेश-रुचि, ४. सूत्र-रुचि, धर्म-ध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं-१. वाचना, २. पृच्छना, ३. परिवर्तना, ४. धर्म-कथा | धर्म-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं-बतलाई गई हैं । १. अनित्यानुप्रेक्षा, २. अशरणानुप्रेक्षा, ३. एकत्वानुप्रेक्षा, ४. संसारानुप्रेक्षा । शुक्ल ध्यान स्वरूप, लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षा के भेद से चार प्रकार का कहा गया है । इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं । स्वरूप की दृष्टि से शुक्ल ध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं-(१) पृथक्त्व-वितर्कसविचार, (२) एवत्व-वितर्क-अविचार, सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति-शुक्ल ध्यान के चार लक्षण बतलाये गये हैं-१. विवेक, २. व्युत्सर्ग, ३. अव्यथा, ४. असंमोह । १. क्षान्ति, २. मुक्ति, ३.आर्जव, ४. मार्दव, शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं । १. अपायानुप्रेक्षा, २. अशुभानुप्रेक्षा, ३.अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा, ४. विपरिणामानुप्रेक्षा। व्युत्सर्ग क्या है-दो भेद हैं-१. द्रव्य-व्युत्सर्ग, २. भाव-व्युत्सर्ग, द्रव्य-व्युत्सर्ग क्या है-द्रव्य-व्युत्सर्ग के चार भेद हैं । १. शरीर-व्युत्सर्ग, २. गण-व्युत्सर्ग, ३. उपधि-व्युत्सर्ग, ४. भक्त-पान-व्युत्सर्ग | भाव-व्युत्सर्ग क्या है ? भाव-व्युत्सर्ग के तीन भेद कहे गये हैं-१. कषाय-व्युत्सर्ग, २. संसार-व्युत्सर्ग, ३. कर्म-व्युत्सर्ग । कषाय-व्युत्सर्ग क्या है ? कषाय-व्युतसर्ग के चार भेद हैं, १. क्रोध-व्युत्सर्ग, २. मान-व्युत्सर्ग, ३. माया-व्युत्सर्ग, ४. लोभ-व्युत्सर्ग । यह कषाय-व्युत्सर्ग का विवेचन है । संसारव्युत्सर्ग क्या है ? संसारव्युत्सर्ग चार प्रकार का है । १. नैरयिकसंसारव्युत्सर्ग २. तिर्यक्-संसारव्युत्सर्ग, ३. मनुज-संसारव्युत्सर्ग, ४. देवसंसार-व्युत्सर्ग । यह संसार-व्युत्सर्ग का वर्णन है । कर्म-व्युत्सर्ग क्या है ? कर्म-व्युत्सर्ग आठ प्रकार का है । वह इस प्रकार है-१. ज्ञानावरणीय-कर्मव्युत्सर्ग, २. दर्शना-वरणीय-कर्म-व्युत्सर्ग, ३. वेदनीय-कर्म-व्युत्सर्ग, ४. मोहनीय-कर्म-व्युत्सर्ग, ५. आयुष्य-कर्मव्युत्सर्ग, ६. नाम-कर्म-व्युत्सर्ग, ७. गोत्र-कर्म-व्युत्सर्ग, ८. अन्तराय-कर्म-व्युत्सर्ग । यह कर्म-व्युत्सर्ग है। सूत्र - २१ उस काल, उस समय-जब भगवान महावीर चम्पा में पधारे, उनके साथ उनके अनेक अन्तेवासी अनगार थे। उनके कईं एक आचार यावत् विपाकश्रुत के धारक थे । वे वहीं भिन्न-भिन्न स्थानों पर एक-एक समूह के रूप में, समूह के एक-एक भाग के रूप में तथा फूटकर रूप में विभक्त होकर अवस्थित थे । उनमें कईं आगमों की वाचना देते थे। कईं प्रतिपृच्छा करते थे । कईं अधीत पाठ की परिवर्तना करते थे। कईं अनुप्रेक्षा करते थे। उनमें कईं आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगनी, तथा निर्वेदनी, यों अनेक प्रकार की धर्म-कथाएं कहते थे । उनमें कईं अपने दोनों घुटनों को ऊंचा उठाये, मस्तक को नीचा किये-ध्यानरूप कोष्ठ में प्रविष्ट थे । इस प्रकार वे अनगार संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए अपनी जीवन-यात्रा चला रहे थे। वे (अनगार) संसार के भय से उद्विग्न एवं चिन्तित थे । यह संसार एक समुद्र है । जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु द्वारा जनित घोर दुःख रूप प्रक्षुभित प्रचुर जल से भरा है । उस जलमें संयोग-वियोग रूपमें लहरें उत्पन्न हो रही हैं । चिन्तापूर्ण प्रसंगोंसे वे लहरें दूर-दूर तक फैलती जा रही हैं। वध तथा बन्धन रूप विशाल, विपुल कल्लोलें उठ रही हैं, जो करुण विलपित तथा लोभकी कलकल करती तीव्र ध्वनि युक्त हैं। जल का ऊपरी भाग तिरस्कार रूप जागों से ढंका है । तीव्र निन्दा, निरन्तर अनुभूत रोग-वेदना, औरों से प्राप्त होता अपमान, विनिपात, कटु निर्भर्त्सना, तत्प्रतिबद्ध ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के कठोर उदय की टक्कर से उठती हई तरंगों से वह परिव्याप्त है । नित्य मृत्यु-भय रूप है । यह संसार रूप समुद्र कषाय पाताल से परिव्याप्त है। इस में लाखों जन्मों में अर्जित पापमय जल संचित है । अपरिमित ईच्छाओं से म्लान बनी बुद्धि रूपी वायु के वेग से ऊपर उछलते सघन जल-कणों के कारण अंधकारयुक्त तथा आशा, पिपासा द्वारा उजले झागों की तरह वह धवल है। संसार-सागर में मोह के रूप में बड़े-बड़े आवर्त हैं । उनमें भोग रूप भंवर हैं । अत एव दुःखरूप जल मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 15
SR No.034679
Book TitleAgam 12 Aupapatik Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 12, & agam_aupapatik
File Size2 MB
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