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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक'
विनय क्या है ? सात प्रकार का है-ज्ञान-विनय, दर्शन-विनय, चारित्र-विनय, मनोविनय, वचन-विनय, काय-विनय, लोकोपचार-विनय । ज्ञान-विनय क्या है ? पाँच भेद हैं-आभिनिबोधिक ज्ञान विनय, श्रुतज्ञान-विनय, अवधिज्ञान-विनय, मनःपर्यवज्ञान-विनय, केवलज्ञान-विनय ।
दर्शन-विनय क्या है ? दो प्रकार का शुश्रूषा-विनय, अनत्याशातना-विनय । शुश्रूषा-विनय क्या है ? अनेक प्रकार का है-अभ्युत्थान, आसनाभिग्रह, आसन-प्रदान, गुरुजनों का सत्कार करना, सम्मान करना, यथाविधि वन्दन-प्रणमन करना, कोई बात स्वीकार या अस्वीकार करते समय हाथ जोड़ना, आते हए गुरुजनों के सामने जाना, बैठे हुए गुरुजनों के समीप बैठना, उनकी सेवा करना, जाते हुए गुरुजनों को पहुँचाने जाना । यह शुश्रूषाविनय है। अनत्याशातना-विनय क्या है ? पैंतालीस भेद हैं-१. अहँतों की, २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म की, ३. आचार्यों की, ४. उपाध्यायों की, ५. स्थविरों, ६. कुल, ७. गण, ८. संघ, ९. क्रियावान् की, १०. सांभोगिक-श्रमण की, ११. मति-ज्ञान की, १२. श्रुत-ज्ञान की, १३. अवधि-ज्ञान, १४. मनःपर्यव-ज्ञान की तथा १५. केवल-ज्ञान की आशातना नहीं करना । इन पन्द्रह की भक्ति, उपासना, बहुमान, गुणों के प्रति तीव्र भावानुरागरूप १५ भेद तथा इनकी यशस्विता, प्रशस्ति एवं गुणकीर्तन रूप और १५ भेद-यों अनत्याशातना-विनय के कुल ४५ भेद होते हैं।
चारित्रविनय क्या है ? पाँच प्रकार का है-सामायिकचारित्र विनय, छेदोपस्थापनीयचारित्र-विनय, परिहारविशुद्धिचारित्र-विनय, सूक्ष्मसंपरायचारित्र-विनय, यथाख्यातचारित्र-विनय । यह चारित्र-विनय है।
मनोविनय क्या है ? दो प्रकार का-१. प्रशस्त मनोविनय, २. अप्रशस्त मनोविनय । अप्रशस्त मनोविनय क्या है ? जो मन सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक, निष्ठुर, परुष, सूखा, आस्रवकारी, छेदकर, भेदकर, परितापनकर, उपद्रवणकर, भूतोपघातिक है, वह अप्रशस्त मन है | वैसी मनःस्थिति लिये मनोविनय है । प्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ? जैसे अप्रशस्त मनोविनय का विवेचन किया गया है, उसी के
आधार पर प्रशस्त मनो-विनय को समझना चाहिए। अर्थात् प्रशस्त मन, अप्रशस्त मन से विपरीत होता है । वचनविनय को भी इन्हीं पदों से समझना चाहिए । अर्थात् अप्रशस्त-वचन-विनय तथा प्रशस्त-वचन-विनय ।
कायविनय क्या है ? काय-विनय दो प्रकार का बतलाया गया है-१. प्रशस्त कायविनय, २. अप्रशस्त कायविनय । अप्रशस्त कायविनय क्या है ? सात भेद हैं-१. अनायुक्त गमन, २. अनायुक्त स्थान, ३. अनायुक्त निषीदन, ४. अनायुक्त त्वग्वर्तन, ५. अनायुक्त उल्लंघन, ६. अनायुक्त प्रलंघन, ७. अनायुक्त सर्वेन्द्रियकाययोग-योजनता यह अप्रशस्त काय-विनय है । प्रशस्त कायविनय क्या है ? प्रशस्त कायविनय को अप्रशस्त कायविनय की तरह समझ लेना चाहिए । यह प्रशस्त कायविनय है। इस प्रकार यह कायविनय का विवेचन है।
लोकोपचार-विनय क्या है ? लोकोपचार विनय के सात भेद हैं-१. अभ्यासवर्तिता, २. परच्छन्दानुवर्तिता, ३. कायहेतु, ४. कृत-प्रतिक्रिया, ५. आर्त-गवेषणता, ६. देशकालज्ञता, ७. सर्वार्थाप्रतिलोमता-यह लोकोपचारविनय है । इस प्रकार यह विनय का विवेचन है।
वैयावृत्य क्या है ? वैयावृत्य के दस भेद हैं-१. आचार्य का वैयावृत्य, २. उपाध्याय का वैयावृत्य, ३. शैक्षनवदीक्षित श्रमण का वैयावृत्य, ४. ग्लान-रुग्णता आदि से पीड़ित का वैयावृत्य, ५. तपस्वी-तेला आदि तप-निरत का वैयावृत्य, ६. स्थविर-वय, श्रुत और दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ का वैयावृत्य, ७. साधर्मिक का वैयावृत्य, ८. कुल का वैयावृत्य, ९. गण का वैयावृत्य, १०. संघ का वैयावृत्य ।
स्वाध्याय क्या है ? पाँच प्रकार का है-१. वाचना, २. प्रतिपृच्छना, ३. परिवर्तना, ४. अनुप्रेक्षा, ५. धर्मकथा। यह स्वाध्याय का स्वरूप है । ध्यान क्या है ? ध्यान के चार भेद हैं-१. आर्त ध्यान, २. रौद्र ध्यान, ३. धर्म ध्यान और ४. शुक्ल ध्यान ।
____ आर्तध्यान चार प्रकार का बतलाया गया है-१. मन को प्रिय नहीं लगने वाले विषय, स्थितियाँ आने पर उनके वियोग के सम्बन्ध में आकलतापूर्ण चिन्तन करना । २. मन को प्रिय लगने वाले विषयों के प्राप उनके अवियोग का आकुलतापूर्ण चिन्तन करना । ३. रोग हो जाने पर उनके मिटने के सम्बन्ध में आकुलतापूर्ण चिन्तन करना । ४. पूर्व-सेवित काम-भोग प्राप्त होने पर, फिर कभी उनका वियोग न हो, यों आकुलतापूर्ण चिन्तन करना । आर्त्तध्यान के चार लक्षण बतलाये गये हैं-१. क्रन्दनता, २. शोचनता, ३. तेपनता, ४. विलपनता ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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