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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' अल्पाहार-अवमोदरिका है । मुर्गी के अंड़े के परिमाण से १२ ग्रास भोजन करना अपार्ध अवमोदरिका है । मुर्गी के अंड़े के परिमाण के सोलह ग्रास भोजन करना अर्थ अवमोदरिका है । मुर्गी के अंडे के परिमाण के चौबीस ग्रास भोजन करना-चौथाई अव-मोदरिका है। मुर्गी के अंडे के परिमाण के इकत्तीस ग्रास भोजन करना किञ्चत् न्यूनअवमोदरिका है । मुर्गी के अंडे के परिमाण के बत्तीस ग्रास भोजन करने वाला प्रमाणप्राप्त है । भाव-अवमोदरिका क्या है ? अनेक प्रकार की है, जैसे-क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग, अल्पशब्द, अल्पझंझ-यह भावमोदरिका है।
भिक्षाचर्या क्या है ? अनेक प्रकार की है-१. द्रव्याभिग्रहचर्या, २. क्षेत्राभिग्रहचर्या, ३. कालाभिग्रहचर्या, ४. भावाभिग्रहचर्या, ५. उत्क्षिप्तचर्या, ६. निक्षिप्तचर्या, ७. उक्षिप्त-निक्षिप्त-चर्या, ८. निक्षिप्त-उक्षिप्त-चर्या, ९. वर्तिष्यमाणचर्या, १०. संह्रियमाणचर्या, ११. उपनीतचर्या, १२. अपनीतचर्या, १३. उपनीतापनीतचर्या, १४. अज्ञातचर्या, १९. मौनचर्या, २०. दृष्ट-लाभ, २१. अदृष्ट-लाभ, २२. पृष्ट-लाभ, २३. अपृष्टलाभ, २४. भिक्षालाभ, २५. अभक्षालाभ, २६. अन्नग्लायक, २७. उपनिहित, २८. परिमितपिण्डपातिक, २९. शुद्धैषणिक, ३०. संख्या-दत्तिक-यह भिक्षाचर्या का विस्तार है।
रसपरित्याग क्या है ? अनेक प्रकार का है, जैसे-१. निर्विकृतिक, २. प्रणीत रसपरित्याग, ३. आयंबिल, ४. आयामसिक्थभोजी, ५. अरसाहार, ६. विरसाहार, ७. अन्ताहार, ८. प्रान्ताहार, ९. रूक्षाहार-यह रस-परित्याग का विश्लेषण है । काय-क्लेश क्या है ? अनेक प्रकार का है, जैसे-१. स्थानस्थितिक, २. उत्कुटुकासनिक, ३. प्रतिमास्थायी, ४. वीरासनिक, ५. नैषधिक, ६. आतापक, ७. अप्रावृतक, ८. अकण्डूयक, ९. अनिष्ठीवक, १०. सर्वगात्र-परिकर्म विभूषा-विप्रमुक्त-यह कायक्लेश का विस्तार है । भगवान महावीर के श्रमण उक्त रूप में कायक्लेश तप का अनुष्ठान करते थे।
प्रतिसंलीनता क्या है ? चार प्रकार की है-१. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, २. कषायप्रतिसंलीनता, ३. योग प्रतिसंलीनता, ४. विविक्त-शयनासन-सेवनता
इन्द्रिय प्रतिसंलीनता क्या है ? पाँच प्रकार की है-१. श्रोत्रेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध, २. चक्षुरिन्द्रिय-विषय -प्रचार-निरोध, ३. घ्राणेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध, ४. जिह्वेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध, ५. स्पर्शेन्द्रिय-विषय-प्रचारनिरोध । यह इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता का विवेचन है । कषाय-प्रतिसंलीनता क्या है ? चार प्रकार की है-१. क्रोध के उदय का निरोध, २. मान के उदय का निरोध, ३. माया के उदय का निरोध, ४. लोभ के उदय का निरोध-यह कषाय-प्रतिसंलीनता का विवेचन है।
योग-प्रतिसंलीनता क्या है ? तीन प्रकार की है-१. मनोयोग-प्रतिसंलीनता, २. वाग्योग-प्रतिसंलीनता तथा ३. काययोग-प्रतिसंलीनता । मनोयोग-प्रतिसंलीनता क्या है ? अकुशल-मन का निरोध, अथवा कुशल मन का प्रवर्तन करना, वाग्योग-प्रतिसंलीनता क्या है ? अकुशल वचन का निरोध और कुशल वचन का अभ्यास करना वाग्योग-प्रतिसंलीनता है । काययोग-प्रतिसंलीनता क्या है ? हाथ, पैर आदि सुसमाहित कर, कछुए के सदृश अपनी इन्द्रियों को गुप्त कर, सारे शरीर को संवृत कर-सुस्थिर होना काययोग-प्रतिसंलीनता है । यह योगप्रतिसंलीनता का विवेचन है । विविक्त-शय्यासन-सेवनता क्या है ? आराम, पुष्पवाटिका, उद्यान, देवकुल, छतरियाँ, सभा, प्रपा, पणित-गृह-गोदाम, पणितशाला, ऐसे स्थानों में, जो स्त्री, पशु तथा नपुंसक के संसर्ग से रहित हो, प्रासुक, अचित्त, एषणीय, निर्दोष पीठ, फलक, शय्या, आस्तरण प्राप्त कर विहरण करना विविक्तशय्यासन-सेवनता है। यह प्रति-संलीनता का विवेचन है, जिसके साथ बाह्य तप का वर्णन सम्पन्न होता है । श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी अनगार उपर्युक्त विविध प्रकार के बाह्य तप के अनुष्ठाता थे। सूत्र-२०
आभ्यन्तर तप क्या है ? आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान तथा ६. व्युत्सर्ग ।
प्रायश्चित्त क्या है ? प्रायश्चित्त दस प्रकार का कहा गया है-१. आलोचनाह, २. प्रतिक्रमणार्ह, ३. तदुभयार्ह, ४. विवेकार्ह, ५. व्युत्सर्गार्ह, ६. तपोऽर्ह, ७. छेदार्ह, ८. मूलार्ह, ९. अनवस्थाप्यारी, १०. पाराञ्चिकार्ह ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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