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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि के उठाने, इधर-उधर रखने आदि तथा मल, मूत्र, खंखार, नाक आदि का मैल त्यागने में समित थे । वे मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त, गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचारी, अमम, अकिञ्चन, छिन्नग्रन्थ, छिन्नस्रोत, निरुपलेप, कांसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार स्नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित, शंख के समान निरंगण, जीव के समान अप्रतिहत, जात्य, विशोधित स्वर्ण के समान, दर्पणपट्ट के सदृश कपटरहित शुद्धभावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय, कमलपत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब, निरपेक्ष, वायु की तरह निरालेप, चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यायुक्त, सूर्य के समान दीप्ततेज, समुद्र के समान गम्भीर, पक्षी की तरह सर्वथा विप्रमुक्त, अनियतवास, मेरु पर्वत समान अप्रकम्प, शरद् ऋतु के जल के समान शुद्ध हृदययुक्त, गेंडे के सींग के समान एकजात, एकमात्र आत्मनिष्ठ, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, हाथी के सदृश शौण्डीर वृषभ समान धैर्यशील, सिंह के समान दुर्धर्ष, पृथ्वी के समान सभी स्पर्शों को समभाव से सहने में सक्षम तथा घृत द्वारा भली भाँति हुत तप तेज से दीप्तिमान थे।
उन पूजनीय साधुओं को किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था । प्रतिबन्ध चार प्रकार का है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से । द्रव्य की अपेक्षा से सचित्त, अचित्त तथा मिश्रित द्रव्यों में; क्षेत्र की अपेक्षा से गाँव, नगर, खेत, खलिहान, घर तथा आँगन में; काल की अपेक्षा से समय आवलिका, अयन एवं अन्य दीर्घकालिक संयोग में तथा भाव की अपेक्षा से क्रोध, अहंकार, माया, लोभ, भय या हास्य में उनका कोई प्रतिबन्ध नहीं था । वे साधु भगवान वर्षावास के चार महीने छोड़कर ग्रीष्म तथा हेमन्त दोनों के आठ महीनों तक किसी गाँव में एक रात तथा नगर में पाँच रात निवास करते थे । चन्दन समान वे अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करने की वृत्ति रखते थे । वे मिट्टी के ढेले और स्वर्ण को एक समान समझते थे । सुख और दुःख में समान भाव रखते थे । वे ऐहिक तथा पारलौकिक आसक्ति से बंधे हए नहीं थे । वे संसारपारगामी तथा कर्मों का निर्घातन हेतु अभ्युत्थित होते हुए विचरण करते थे। सूत्र-१८
इस प्रकार विहरणशील वे श्रमण भगवान आभ्यन्तर तथा बाह्य तपमूलक आचार का अनुसरण करते थे। आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है तथा बाह्य तप भी छह प्रकार का है। सूत्र - १९
बाह्य तप क्या है ? बाह्य तप छह प्रकार के हैं अनशन, अवमोदरिका, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता।
अनशन क्या है ? अनशन दो प्रकार का है-१. इत्वरिक एवं २. यावत्कथिक । इत्वरिक क्या है ? इत्वरिक अनेक प्रकार का बतलाया गया है, जैसे-चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त - चार दिन के उपवास, द्वादश भक्त - पाँच दिन के उपवास, चतुर्दश भक्त-छह दिन के उपवास, षोडश भक्त, अर्द्धमासिक भक्त, मासिक भक्त, द्वैमासिक भक्त, त्रैमासिक भक्त, चातुर्मासिक भक्त, पाञ्चमासिक भक्त, पाण्मासिक भक्त । यह इत्वरिक तप का विस्तार है।
यावत्कथिक क्या है ? यावत्कथिक के दो प्रकार हैं-पादपोपगमन और भक्तपानप्रत्याख्यान | पादपोपगमन क्या है ? पादपोपगमन के दो भेद हैं-१. व्याघातिम और २. निर्व्याघातिम । इस में प्रतिकर्म, हलन-चलन आदि क्रिया-प्रकिया का त्याग रहता है । इस प्रकार पादोपगमन यावत्कथिक अनशन होता है । भक्तप्रत्याख्यान क्या है ? भक्तप्रत्याख्यान के दो भेद बतलाए गए हैं-१. व्याघातिम, २. निर्व्याघातिम । भक्तप्रत्याख्यान अनशन में प्रतिकर्म नियमतः होता है । यह भक्त प्रत्याख्यान अनशन का विवेचन है ।
अवमोदरिका क्या है ? अवमोदरिका के दो भेद बतलाए गए हैं-द्रव्य-अवमोदरिका और भाव अवमोदरिका -द्रव्य-अवमोदरिका क्या है ? दो भेद बतलाए हैं-१. उपकरण-द्रव्य-अवमोदरिका, २. भक्तपानअवमोदरिका-उपकरण-द्रव्य-अवमोदरिका क्या है ? तीन भेद बतलाए हैं-१. एक पात्र रखना, २. एक वस्त्र रखना, ३. एक मनोनुकूल निर्दोष उपकरण रखना । यह उपकरण-द्रव्य-अवमोदरिका । भक्तपान-द्रव्यअवमोदरिका क्या है ? अनेक भेद बतलाये हैं, मुर्गी के अंडे के परिमाण के केवल आठ ग्रास भोजन करना
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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