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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए इनकी पर्युपासना करने लगे। सूत्र-२३
उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के पास असुरेन्द्रवर्जित, भवनवासी देव प्रकट हुए । उनके मुकूट क्रमशः नागफण, गरुड़, वज्र, पूर्ण कलश, सिंह, अश्व, हाथी, मगर तथा वर्द्धमानक थे । वे सुरूप, परम ऋद्धिशाली, परम द्युतिमान, अत्यन्त बलशाली, परम यशस्वी, परम सुखी तथा अत्यन्त सौभाग्यशाली थे । उनके वक्षःस्थलों पर हार सुशोभित हो रहे थे। वे अपनी भुजाओं पर कंकण तथा भुजाओं को सुस्थिर बनाये रखने वाली पट्टियाँ एवं अंगद धारण किये हुए थे । उनके केसर, कस्तूरी आदि से मण्डित कपोलों पर कुंडल व अन्य कर्णभूषण शोभित थे । वे विचित्र आभूषण धारण किये हुए थे । उनके मस्तकों पर तरह तरह की मालाओं से युक्त मुकुट थे । वे कल्याणकृत अनुपहत, प्रवर पोशाक पहने हुए थे । वे मंगलमय, उत्तम मालाओं एवं अनुलेपन से युक्त थे । उनके शरीर देदीप्यमान थे । वनमालाएं, उनके गलों से घुटनों तक लटकती थीं। उन्होंने दिव्य वर्ण, गन्ध, रूप, स्पर्श, संघात, संस्थान, ऋद्धि, द्युति, प्रभा, कान्ति, अर्चि, तेज, लेश्या, तदनुरूप भामण्डल से दशों दिशाओं को उद्योतित, प्रभासित करते हुए श्रमण भगवान महावीर के समीप आ-आकर अनुरागपूर्वक प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया । वे भगवान महावीर के न अधिक समीप, न अधिक दूर, सूनने की ईच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनय पूर्वक सामने हाथ जोड़ते हुए उनकी पर्युपासना करने लगे। सूत्र-२४
उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के समीप पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महाकाय भुजगपति, गन्धर्व गण, अणपन्निक, पणपन्निक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्मांड, प्रयत-ये व्यन्तर जाति के देव प्रकट हुए । वे देव अत्यन्त चपल चित्तयुक्त, क्रीडाप्रिय तथा परिहासप्रिय थे । उन्हें गंभीर हास्य तथा वैसी ही वाणी प्रिय थी । वे वैक्रिय लब्धि द्वारा अपनी ईच्छानुसार विरचित वनमाला, फूलों का सेहरा या कलंगी, मुकुट, कुण्डल आदि आभूषणों द्वारा सुन्दर-रूप में सजे हुए थे । सब ऋतुओं में खिलने वाले, सुगन्धित पुष्पों से सुरचित, लम्बी, शोभित होती हुई, सुन्दर, विकसित वनमालाओं द्वारा उनके वक्षःस्थल बड़े आह्लादकारी प्रतीत होते थे । वे कामगम, कामरूपधारी थे । वे भिन्न-भिन्न रंग के, उत्तम, चित्र-विचित्र चमकीले वस्त्र पहने हुए थे । अनेक देशों की वेशभूषा के अनुरूप उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकार की पोशाकें धारण कर रखी थीं। वे प्रमोदपूर्ण काम-कलह, क्रीड़ा तथा तज्जनित कोलाहल में प्रीति मानते थे । वे बहुत हँसने वाले तथा बहुत बोलने वाले थे । वे अनेक मणियों एवं रत्नों से विविध रूप में निर्मित चित्र-विचित्र चिह्न धारण किये हुए थे । वे सुरूप तथा परम ऋद्धि सम्पन्न थे । पूर्व समागत देवों की तरह यथाविधि वन्दन-नमन कर श्रमण भगवान महावीर की पर्युपासना करने लगे। सूत्र-२५
उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के सान्निध्य में बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध तथा मंगल, जिनका वर्ण तपे हुए स्वर्ण-बिन्दु के समान दीप्तिमान था-(ये) ज्योतिष्क देव प्रकट हुए। इनके अतिरिक्त ज्योतिश्चक्र में परिभ्रमण करने वाले केतु आदि ग्रह, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण, नाना आकृतियों के पाँच वर्ण के तारे प्रकट हुए । उनमें स्थित रहकर प्रकाश करने वाले तथा अविश्रान्त तया गतिशीलदोनों प्रकार के ज्योतिष्क देव थे । हर किसी ने अपने-अपने नाम से अंकित अपना विशेष चिह्न अपने मुकूट पर धारण कर रखा था । वे परम ऋद्धिशाली देव भगवान की पर्युपासना करने लगे।
सूत्र-२६
उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर समक्ष सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण तथा अच्युत देवलोकों के अधिपति-इन्द्र अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक प्रादुर्भूत हुए । जिनेश्वरदेव के दर्शन पाने की उत्सुकता और तदर्थ अपने वहाँ पहुँचने से उत्पन्न हर्ष से वे प्रफुल्लित थे । जिनेन्द्र प्रभु का वन्दन-स्तवन करनेवाले वे देव पालक, पुष्पक, सौमनस, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, कामगम, प्रीतिगम,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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