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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक ग्रहण करने में समर्थ है? हाँ गौतम ! है। तदनन्तर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना व नमस्कार करके संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगा । तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानगत कृतवनमाल नामक यक्षायतन से विहार किया और विहार करके अन्य देशों में विचरने लगे। इधर सुबाहकुमार श्रमणोपासक हो गया । जीव अजीव आदि तत्त्वों का मर्मज्ञ यावत् आहारादि के दान-जन्य लाभ को प्राप्त करता हुआ समय व्यतीत करने लगा।
तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहुकुमार चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या और पूर्णमासी, इन तिथियों में जहाँ पौषधशाला थी-वहाँ आता है | आकर पौषधशाला का प्रमार्जन करता है, उच्चारप्रसवण भूमि की प्रतिलेखना करता है । दर्भसंस्तार बिछाता है । दर्भ के आसन पर आरूढ़ होता है और अट्ठमभक्त ग्रहण करता है। पौषधशाला में पौषधव्रत किये हए वह, अष्टमभक्त सहित पौषध-अष्टमी, चतर्दशी आदि पर्व तिथियों में करने योग्य जैन श्रावक का व्रत विशेष-का यथाविधि पालन करता हुआ विहरण करता है।
तदनन्तर मध्यरात्रि में धर्मजागरण करते हुए सुबाहकुमार के मन में यह आन्तरिक विचार, चिन्तन, कल्पना, ईच्छा एवं मनोगत संकल्प उठा कि-वे ग्राम आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टन, आश्रम, संबाध और सन्निवेश धन्य हैं जहाँ पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी विचरते हैं । वे राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट मुण्डित होकर प्रव्रजित होते हैं । वे राजा, ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान महावीर के पास पञ्चाणुव्रतिक और सप्त शिक्षावतिक उस बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अङ्गीकार करते हैं । वे राजा ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान महावीर के पास धर्मश्रवण करते हैं । सो यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी ग्रामानुग्राम विचरते हुए, यहाँ पधारे तो मैं गृह त्याग कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर प्रव्रजित हो जाऊं।
तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर सुबाहुकुमार के इस प्रकार के संकल्प को जानकर क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरते हुए जहाँ हस्तिशीर्ष नगर था, और जहाँ पुष्पकरण्डक नामक उद्यान था, और जहाँ कृतवनमालप्रिय यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे एवं यथा प्रतिरूप-स्थानविशेष को ग्रहण कर संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित हुए । तदनन्तर पर्षदा व राजा दर्शनार्थ नीकले । सुबाहुकुमार भी पूर्व ही की तरह बड़े समारोह के साथ भगवान की सेवा में उपस्थित हुआ । भगवान ने उस परिषद् तथा सुबाहुकुमार को धर्म का प्रतिपादन किया । परिषद् और राजा धर्मदेशना सूनकर वापिस चले गए। सुबाहुकुमार श्रमण भगवान महावीर के पास से धर्म श्रवण कर उसका मनन करता हआ मेघकुमार की तरह अपने माता-पिता से अनुमति लेता है । तत्पश्चात सुबाहुकुमार का निष्क्रमण-अभिषेक मेघकुमार ही की तरह होता है । यावत् वह अनगार हो जाता है, ईर्यासमिति का पालक यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बन जाता है।
तदनन्तर सुबाहु अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक आदि एकादश अङ्गों का अध्ययन करते हैं । अनेक उपवास, बेला, तेला आदि नाना प्रकार के तपों के आचरण से आत्मा को वासित करके अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन कर एक मास की संलेखना के द्वारा अपने आपको आराधित कर साठ भक्तों का अनशन द्वारा छेदन कर आलोचना व प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि को प्राप्त होकर कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए।
तदनन्तर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति के क्षय होने पर व्यवधान रहित देव शरीर को छोड़कर सीधा मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा । शंकादि दोषों से रहित केवली का लाभ करेगा, बोधि उपलब्ध कर तथारूप स्थविरों के पास मुण्डित होकर साधुधर्म में प्रव्रजित हो जाएगा । वहाँ वह एक अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करेगा और आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होगा । काल धर्म को प्राप्त कर सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न होगा।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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