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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक तदनन्तर उसी रथ पर सुबाहुकुमार सवार हुआ और वापस चला गया ।
उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् इस प्रकार कहने लगे-'अहो भगवन् ! सुबाहुकुमार बालक बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप-सुन्दर रूप वाला है। अहो भगवन् ! यह सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, इष्टरूप यावत् सुरूप लगता है । भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवीय समृद्धि कैसे उपलब्ध की ? कैसे प्राप्त की? और कैसे उसके सन्मुख उपस्थित हुई ? सुबाहुकुमार पूर्वभव में कौन था ? यावत् इसका नाम और गोत्र क्या था ? किस ग्राम अथवा बस्ती में उत्पन्न हुआ था ? क्या दान देकर, क्या उपभोग कर और कैसे आचार का पालन करके, किस श्रमण या माहन के एक भी आर्यवचन को श्रवणकर सबाहकमारने ऐसी यह ऋद्धिलब्ध एवं प्राप्त की है, कैसे यह समद्धि इसके सन्मुख उपस्थित हई है?
हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित एवं समद्ध नगर था । वहाँ सुमुख नाम का धनाढ्य गाथापति रहता था। उस काल तथा उस समय उत्तम जाति और कुल से संपन्न यावत् पाँच सौ श्रमणों से परिवृत्त हुए धर्मघोष नामक स्थविर क्रमपूर्वक चलते हुए तथा ग्रामानुग्राम विचरते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवन नामक उद्यान में पधारे । वहाँ यथाप्रतिरूप अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे।
उस काल और उस समय में धर्मघोष स्थविर के अन्तेवासी उदार-प्रधान यावत तेजोलेश्या को संक्षिप्त किये हुए सुदत्त नाम के अनगार एक मास का क्षमण-तप करते हए पारणा करते हए विचरण कर रहे थे । एक बार सुदत्त अनगार मास-क्षमण पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, यावत् गौतम स्वामी समान वैसे ही वे धर्मघोष स्थविर से पूछते हैं, यावत् भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए सुमुख गाथापति के घर में प्रवेश करते हैं । तदनन्तर वह सुमुख गाथापति सुदत्त अनगार को आते हुए देखकर अत्यन्त हर्षित और प्रसन्न होकर आसन से उठता है । पाद-पीठ से नीचे ऊतरता है । पादुकाओं को छोड़ता है । एक शाटिक उत्तरासंग करता है, उत्तरासंग करने के अनन्तर सुदत्त अनगार के सत्कार के लिए सात-आठ कदम सामने जाता है । तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वंदन करता है, नमस्कार करके जहाँ अपना भक्तगृह था वहाँ आकर अपने हाथ से विपुल अशनपान का-आहार का दान दूँगा, इस विचार से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त होता है । वह देते समय भी प्रसन्न होता है और के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव करता है।
तदनन्तर उस सुमुख गाथापति के शुद्ध द्रव्य से तथा त्रिविध, त्रिकरण शुद्धि से स्वाभाविक उदारता सरलता एवं निर्दोषता से सुदत्त अनगार के प्रतिलम्भित होने पर आहार के दान से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए सुमुख गाथापति ने संसार को बहुत कम कर दिया और मनुष्य आयुष्य का बन्ध कर दिया । उसके घर में सुवर्णवृष्टि, पाँच वर्गों के फूलों की वर्षा, वस्त्रों का उत्क्षेप, देवदुन्दुभियों का बजना तथा आकाश में अहोदान' इस दिव्य उद्घोषणा का होना-ये पाँच दिव्य प्रकट हुए । हस्तिनापुर के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर आपस में एक दूसरे से कहते थे-हे देवानुप्रियो ! धन्य है सुमुख गाथापति ! सुमुख गाथापति सुलक्षण है, कृतार्थ है, उसने जन्म और जीवन का सफल प्राप्त किया है जिसे इस प्रकार की यह माननीय ऋद्धि प्राप्त हुई । धन्य है सुमुख गाथापति !
तदनन्तर वह सुमुख गाथापति सैकड़ों वर्षों की आयु का उपभोग कर काल-मास में काल करके इसी हस्तिशीर्षक नगर में अदीनशत्रु राजा की धारिणी देवी की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् वह धारिणी देवी किञ्चित् सोई और किञ्चित् जागती हुई स्वप्न में सिंह को देखती है । शेष वर्णन पूर्ववत् जानना । यावत् उन प्रासादों में मानव सम्बन्धी उदार भोगों का यथेष्ट उपभोग करता विचरता है । हे गौतम ! सुबाहुकुमार को उपर्युक्त महादान के प्रभाव से इस तरह की मानव-समृद्धि उपलब्ध तथा प्राप्त हुई और उसके समक्ष समुपस्थित हुई है।
गौतम-प्रभो ! सुबाहुकुमार आपश्री के चरणों में मुण्डित होकर, गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म को
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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