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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक वहाँ से पुनः मनुष्य भव प्राप्त करेगा । दीक्षित होकर यावत् महाशुक् नामक देवलोक में उत्पन्न होगा । वहाँ से फिर मनुष्य-भव में जन्म लेगा और दीक्षित होकर यावत् आनत नामक नवम देवलोक में उत्पन्न होगा । वहाँ की भवस्थिति को पूर्ण कर मनुष्य-भव में आकर दीक्षित हो आरण नाम के ग्यारहवे देवलोक में उत्पन्न होगा । वहाँ से च्यव कर मनुष्य-भव को धारण करके अनगार-धर्म का आराधन कर शरीरान्त होने पर सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में उत्पन्न होगा । वहाँ से सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में सम्पन्न कुलों में से किसी कुल में उत्पन्न होगा । वहाँ दृढ़प्रतिज्ञ की भाँति चरित्र प्राप्त कर सिद्धपद को प्राप्त करेगा । हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने सुखविपाक अंग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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