________________
आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-८- शौर्यदत्त सूत्र - ३२
अष्टम अध्ययन का उत्क्षेप पूर्ववत् । हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का नगर था । वहाँ शौरिकावतंसक' नाम का उद्यान था । शौरिक यक्ष था । शौरिकदत्त राजा था । उस शौरिकपुर नगर के बाहर ईशान को में एक मच्छीमारों का पाटक था । वहाँ समुद्रदत्त नामक मच्छीमार था । वह महा-अधर्मी यावत् दुष्प्रत्या-नन्द था । उसकी समुद्रदत्ता नामकी अन्यून व निर्दोष पाँचों इन्द्रियों परिपूर्ण शरीर वाली भार्या थी । उस समुद्रदत्त का पुत्र और समुद्रदत्ता भार्या का आत्मज शौरिकदत्त नामक सर्वाङ्गसम्पन्न सुन्दर बालक था।
उस काल व उस समयमें भगवान महावीर पधारे यावत् परीषद् व राजा धर्मकथा सूनकर वापिस चले गए उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतमस्वामी यावत् षष्ठभक्त के पारणे के अवसर पर शौरिकपुर नगरमें उच्च, नीच तथा मध्यममें भ्रमण करते हुए यथेष्ठ आहार लेकर शौरिकपुर नगर से बाहर नीकलते हैं । उस मच्छीमार मुहल्ले के पास से जाते हुए उन्होंने विशाल जनसमुदाय के बीच एक सूखे, बुभुक्षित, मांसरहित व अतिकृश होने के कारण जिसके चमड़े हड्डियों से चिपटे हुए हैं, उठते-बैठते वक्त जिसकी हड्डियाँ कड़कड़ कर रही हैं, जो नीला वस्त्र पहने हुए हैं एवं गले में मत्स्य-कण्टक लगा होने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण आक्रन्दन कर रहा है, ऐसे पुरुष को देखा । वह खून के कुल्लों, पीव के कुल्लों और कीड़ों के कुल्लों का बारंबार वमन कर रहा था । उसे देख कर गौतमस्वामी के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ-अहो! यह पुरुष पूर्वकृत् यावत् अशुभकर्मों के फलस्वरूप नरकतुल्य वेदना अनुभवता हुआ समय बिता रहा है! इस तरह विचार कर श्रमण भगवान महावीर पास पहुँचे यावत् भगवान से उसका पूर्वभव पृच्छा । यावत् भगवानने कहा
हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप अन्तर्गत भारतवर्ष में नन्दिपुर नगर था । वहाँ मित्र राजा था । उस मित्रराजा के श्रीयक नामक रसोईया था । महाअधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था । उसके पैसे और भोजनादि रूप से वेतन ग्रहण करनेवाले अनेक मच्छीमार, वागुरिक, शाकुनिक, नौकर पुरुष थे; जो श्लक्ष्ण-मत्स्यों यावत् पताकातिपताकों तथा अजों यावत् महिषों एवं तित्तिरों यावत् मयूरों का वध करके श्रीद रसोईये को देते थे । अन्य बहुत से तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी उसके यहाँ पिंजरों में बन्द किये हुए रहते थे । श्रीद रसोईया के अन्य अनेक वेतन लेकर काम करनेवाले पुरुष अनेक जीते हए तित्तरों यावत् मयूरों को पक्ष रहित करके लाकर दिया करते थे।
तदनन्तर वह श्रीद नामक रसोईया अनेक जलचर, स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों को लेकर सूक्ष्म, वृत्त, दीर्घ, तथा ह्रस्व खण्ड किया करता था । उन खण्डों में से कईं एक को बर्फ से पकाता था, कईं एक को अलग रख देता जिससे वे स्वतः पक जाते थे, कईं एक को धूप की गर्मी से व कईं एक को हवा के द्वारा पकाता था । कईं एक को कृष्ण वर्ण वाले तो कईं एक को हिंगुल वर्ण वाले किया करता था । वह उन खण्डों को तक्र, आमलक, द्राक्षारस, कपित्थ तथा अनार के रस से भी संस्कारित करता था एवं मत्स्यरसों से भी भावित किया करता था। तदनन्तर उन मांसखण्डों में से कईं एक को तेल से तलता, कईं एक को आग पर भूनता तथा कईं एक को सूल में पिरोकर पकाता था । इसी प्रकार मत्स्यमांसों, मृगमांसों, तित्तिरमांसों, यावत् मयूरमांसों के रसों को तथा अन्य बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके राजा मित्र के भोजनमंडप में ले जाकर भोजन के समय उन्हें प्रस्तुत करता था । श्रीद रसोईया स्वयं भी अनेक जलचर, स्थलचर एवं खेचर जीवों के मांसों, रसों व हरे शाकों के साथ, जो कि शूलपक्व होते, तले हुए होते, भूने हुए होते थे, छह प्रकार की सुरा आदि का आस्वादनादि करता हुआ काल यापन कर रहा था ।
तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करने वाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं का विज्ञान रखने वाला, तथा इन्हीं पापों को सर्वोत्तम आचरण मानने वाला वह श्रीद रसोईया अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर ३३०० वर्ष की परम आयु को भोग कर कालमास में काल करके छठे नरक में उत्पन्न हुआ । उस समय वह समुद्रदत्ता भार्या-मृतवत्सा थी। उसके बालक जन्म लेने के साथ ही मर जाया करते थे। उसने गंगदत्ता की ही तरह विचार
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 34