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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक किया, पति की आज्ञा लेकर, मान्यता मनाई और गर्भवती हुई । दोहद की पूर्ति पर समुद्रदत्त बालक को जन्म दिया। 'शौरक यक्ष की मनौती के कारण हमें यह बालक उपलब्ध हुआ है। ऐसा कहकर उसका नाम 'शौरिकदत्त' रखा । तदनन्तर पाँच धायमाताओं से परिगृहीत, बाल्यावस्था को त्यागकर विज्ञान की परिपक्व अवस्था से सम्पन्न वह शौरिकदत्त युवावस्था को प्राप्त हुआ । तदनन्तर समुद्रदत्त कालधर्म को प्राप्त हो गया । रुदन, आक्रन्दन व विलाप करते हुए शौरिकदत्त बालक ने अनेक मित्र-ज्ञाति-स्वजन परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया, दाहकर्म व अन्य लौकिक क्रियाएं की। तत्पश्चात् किसी समय वह स्वयं ही मच्छीमारों का मुखिया बन कर रहने लगा। अब वह मच्छीमार हो गया जो महा अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था।
तदनन्तर शौरिकदत्त मच्छीमारने पैसे और भोजनादि का वेतन लेकर काम करनेवाले अनेक वेतनभोगी रखे, जो छोटी नौकाओं द्वारा यमना महानदी में प्रवेश करते, हदगलन, हदमलन, हदमर्दन, ह्रदमन्थन, हदवहन, ह्रदप्रवहन से, तथा प्रपंचुल, प्रपंपुल, मत्स्यपुच्छ, जृम्भा, त्रिसरा, भिसरा, विसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि, जाल, गल, कूटपाश, वल्कबन्ध, सूत्रबन्ध और बालबन्ध साधनों के द्वारा कोमल मत्स्यों यावत् पताकातिपताक मत्स्य-विशेषों को पकड़ते, उनसे नौकाएं भरते हैं । नदी के किनारे पर लाते हैं, बाहर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं । तत्पश्चात् उनको वहाँ धूप में सूखने के लिए रख देते हैं । इसी प्रकार उसके अन्य वेतनभोगी पुरुष धूप से सूखे हुए उन मत्स्यों के मांसों को शूलाप्रोत कर पकाते, तलते और भूनते तथा उन्हें राजमार्गों में विक्रयार्थ रखकर आजीविका समय व्यतीत कर रहे थे । शौरिकदत्त स्वयं भी उन शूलाप्रोत किये हुए, भूने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार की सुरा सीधु आदि मदिराओं का सेवन करता हुआ जीवन यापन कर रहा था।
तदनन्तर किसी अन्य समय शूल द्वारा पकाये गये, तले गए व भूने गए मत्स्यमांसों का आहार करते समय उस शौरिकदत्त मच्छीमार के गले में मच्छी का काँटा फँस गया । इसके कारण वह महती असाध्य वेदना का अनुभव करने लगा । अत्यन्त दुःखी हुए शौरिक ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रियो ! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों व यावत् सामान्य मार्गों पर जाकर ऊंचे शब्दों से इस प्रकार घोषणा करो कि-हे देवानुप्रियो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का काँटा फँस गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक-पुत्र उस मत्स्य-कंटक को नीकाल देगा तो, शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा। कौटुम्बिक पुरुषों-अनुचरों ने उसकी आज्ञानुसार सारे नगर में उद्घोषणा कर दी।
उसके बाद बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र आदि उपर्युक्त उद्घोषणा को सूनकर शौरिकदत्त का जहाँ घर था और शौरिक मच्छीमार जहाँ था वहाँ पर आए, आकर बहुत सी औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी बुद्धियों से सम्यक् परिणमन करते वमनो, छर्दनों अवपीड़नों कवलग्राहों शल्योद्धारों विशल्य-करणों आदि उपचारों से शौरिकदत्त के गले के काँटों को नीकालने का तथा पीव को बन्द करने का बहुत प्रयत्न करते हैं परन्तु उसमें वे सफल न हो सके । तब श्रान्त, तान्त, परितान्त होकर वापिस अपने अपने स्थान पर चले गये । इस तरह वैद्यों के इलाज से निराश शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूखकर यावत् अस्थिपिञ्जर हो गया । वह दुःख पूर्वक समय बीता रहा है । हे गौतम ! वह शौरिकदत्त अपने पूर्वकृत् अत्यन्त अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है।
अहो भगवन् ! शौरिकदत्त मच्छीमार यहाँ से कालमास में काल करके कहाँ जाएगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ७० वर्ष की परम आयु को भोगकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होगा । उसका अवशिष्ट संसार-भ्रमण पूर्ववत् ही समझना यावत् पृथ्वीकाय आदि में लाखों बार उत्पन्न होगा । वहाँ से नीकलकर हस्तिनापुर में मत्स्य होगा । वहाँ मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त होकर वहीं हस्तिनापुर में एक श्रेष्ठिकुल में जन्म लेगा । वहाँ सम्यक्त्व की उसे प्राप्ति होगी । वहाँ से मरकर सौधर्म देवलोक में देव होगा । वहाँ से चय करके महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा, चारित्र ग्रहण कर उसके सम्यक् आराधन से सिद्ध पद को प्राप्त करेगा । निक्षेप पूर्ववत् ।
अध्ययन-८-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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