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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक साहंजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नामकी भार्या के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । लगभग नौ मास परिपूर्ण हो जाने पर किसी समय भद्रा नामक भार्या ने बालक को जन्म दिया । उत्पन्न होते ही माता-पिता ने उस बालक को शकट के नीचे स्थापित कर दिया-रख दिया और फिर उठा लिया । उठाकर यथाविधि संरक्षण, संगोपन व संवर्द्धन किया । यावत् यथासमय उसके माता-पिता ने कहा-उत्पन्न होते ही हमारा यह बालक शकट के नीचे स्थापित किया गया था, अतः इसका शकट' ऐसा नामाभिधान किया जाता है । शकट का शेष जीवन उज्झित की तरह समझना।
इधर सुभद्र सार्थवाह लवणसमुद्र में कालधर्म को प्राप्त हआ और शकट की माता भद्रा भी मृत्यु को प्राप्त हो गई। तब शकटकुमार को राजपुरुषों के द्वारा घर से नीकाल दिया गया । अपने घर से नीकाले जाने पर शकटकुमार साहजनी नगरी के शृंगाटक आदि स्थानों में भटकता रहा तथा जुआरियों के अड्डों तथा शराबघरों में घूमने लगा । किसी समय उसकी सुदर्शना गणिका के साथ गाढ़ प्रीति हो गई। तदनन्तर सिंहगिरि राजा का अमात्यमन्त्री सुषेण किसी समय उस शकटकुमार को सुदर्शना वेश्या के घर से नीकलवा देता है और सुदर्शना गणिका को अपने घर में पत्नी के रूप में रख लेता है । इस तरह घर में पत्नी के रूप में रखी हुई सुदर्शना के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विशिष्ट कामभोगों को यथारुचि उपभोग करता हआ समय व्यतीत करता है।
घर से नीकाला गया शकट सुदर्शना वेश्या में मूर्च्छित , गृद्ध, अत्यन्त आसक्त होकर अन्यत्र कहीं भी सुख चैन, रति, शान्ति नहीं पा रहा था । उसका चित्त, मन, लेश्या अध्यवसाय उसी में लीन रहता था । वह सुदर्शना के विषय में ही सोचा करता, उसमें करणों को लगाए रहता, उसी की भावना से भावित रहता । वह उसके पास जाने की ताक में रहता और अवसर देखता रहता था। एक बार उसे अवसर मिल गया । वह सुदर्शना के घर में घुस गया और फिर उसके साथ भोग भोगने लगा । इधर एक दिन स्नान करके तथा सर्व अलङ्कारों से विभूषित होकर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित सुषेण मंत्री सुदर्शना के घर पर आया । आते ही उसने सुदर्शना के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए शकटकुमार को देखा । देखकर वह क्रोध के वश लाल-पीला हो, दाँत पीसता हुआ मस्तक पर तीन सल वाली भृकुटि चढ़ा लेता है । शकटकुमार को अपने पुरुषों से पकड़वाकर यष्टियों, मुट्ठियों, घुटनों, कोहनियों से उसके शरीर को मथित कर अवकोटकबन्धन से जकड़वा लेता है । तदनन्त महाराज महचन्द्र के पास ले जाकर दोनों हाथ जोड़कर तथा मस्तक पर दसों नख वाली अञ्जलि करके इस प्रकार निवेदन करता है-'स्वामिन् ! इस शकटकुमार ने मेरे अन्तःपुर में प्रवेश करने का अपराध किया है।'
महाराज महचन्द्र सुषेण मंत्री से इस प्रकार बोले- देवानुप्रिय ! तुम ही इसको अपनी ईच्छानुसार दण्ड दे सकते हो। तत्पश्चात् महाराज महचन्द्र से आज्ञा प्राप्त कर सुषेण अमात्य ने शकटकुमार और स को पूर्वोक्त विधि से वध करने की आज्ञा राजपरुषों को प्रदान की। सूत्र - २६
शकट की दुर्दशा का कारण भगवान से सूनकर गौतम स्वामी ने प्रश्न किया-हे प्रभो ! शकटकुमार बालक यहाँ से काल करके कहाँ जाएगा और कहाँ पर उत्पन्न होगा? हे गौतम ! शकट दारक को ५७ वर्ष की परम आयु को भोगकर आज ही तीसरा भाग शेष रहे दिन में एक महालोहमय तपी हुई अग्नि के समान देदीप्यमान स्त्रीप्रतिमा से आलिङ्गन कराया जाएगा । तब वह मृत्यु-समय में मरकर रत्नप्रभा नाम की प्रथम नरक भूमि में नारक रूप से उत्पन्न होगा । वहाँ से नीकलकर राजगृह नगर में मातङ्ग कुल में युगल रूप से उत्पन्न होगा । युगल के माता-पिता बारहवें दिन उनमें से बालक का नाम 'शकटकुमार' और कन्या का नाम सुदर्शना' रखेंगे।
तदनन्तर शकटकुमार बाल्यभाव को त्याग कर यौवन को प्राप्त करेगा । सुदर्शना कुमारी भी बाल्यावस्था पार करके विशिष्ट ज्ञानबुद्धि की परिपक्वता को प्राप्त करती हुई युवावस्था को प्राप्त होगी । वह रूप, यौवन व लावण्य में उत्कृष्ट श्रेष्ठ व सुन्दर शरीर वाली होगी । तदनन्तर सुदर्शना के रूप, यौवन और लावण्य की सुन्दरता में मूर्च्छित होकर शकटकुमार अपनी बहिन सुदर्शना के साथ ही मनुष्य सम्बन्धी प्रधान कामभोगों का सेवन करता
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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