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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-४-शकट सूत्र- २४
जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया-भन्ते ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने, जो यावत् निर्वाणप्राप्त हैं, यदि तीसरे अध्ययन का यह अर्थ कहा तो भगवान ने चौथे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? तब सुधर्मा स्वामी ने जम्बू अनगार से इस प्रकार कहा-हे जम्बू ! उस काल उस समय में साहंजनी नाम की एक ऋद्ध-भवनादि की सम्पत्ति से सम्पन्न, स्तिमित तथा समृद्ध नगरी थी। उसके बाहर ईशानकोण में देवरमण नाम का एक उद्यान था । उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन था । उस नगरी में महचन्द्र राजा था । वह हिमालय के समान दूसरे राजाओं से महान था । उस महचन्द्र नरेश का सुषेण मन्त्री था, जो सामनीति, भेदनीति, दण्डनीति और उपप्रदाननीति के प्रयोग को और न्याय नीतियों की विधि को जानने वाला तथा निग्रह में कुशल था । उस नगर में सुदर्शना नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका-वेश्या रहती थी।
उस नगरी में सुभद्र नाम का सार्थवाह था । उस सुभद्र सार्थवाह की निर्दोष सर्वाङ्गसुन्दर शरीरवाली भद्रा भार्या थी । समुद्र सार्थवाह का पुत्र व भद्र
द्र सार्थवाह का पुत्र व भद्रा भार्या का आत्मज शकट नाम का बालक था । वह भी पंचेन्द्रियों से परिपूर्ण-सुन्दर शरीर से सम्पन्न था।
उस काल, उस समय साहंजनी नगरी के बाहर देवरमण उद्यान में श्रमण भगवान महावीर पधारे । नगर से जनता और राजा नीकले । भगवान ने धर्मदेशना दी। राजा और प्रजा सब वापस लौट गए।
उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर ने ज्येष्ठ अन्तेवासी श्री गौतम स्वामी यावत् राजमार्ग में पधारे । वहाँ उन्होंने हाथी, घोड़े और बहतेरे पुरुषों को देखा । उन पुरुषों के मध्य में अवकोटक बन्धन से युक्त, कटे कान और नाक वाले यावत् उद्घोषणा सहित एक सस्त्रीक पुरुष को देखा । देखकर गौतम स्वामी ने पूर्ववत् विचार किया और भगवान से आकर प्रश्न किया । भगवान ने इस प्रकार कहा-हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप अन्तर्गत भारतवर्ष में छगलपुर नगर था । वहाँ सिंहगिरि राजा राज्य करता था । वह हिमालयादि पर्वतों के समान महान था । उस नगर में छणिक नामक एक छागलिक कसाई रहता था, जो धनाढ्य, अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था।
उस छण्णिक छागलिक के अनेक अजो, रोझो, वृषभों, खरगोशो, मृगशिशुओं, शूकरो, सिंहो, हरिणो, मयूरो और महषि के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध यूथ, बाड़े में सम्यक् प्रकार से रोके हुए रहते थे । वहाँ जिनको वेतन के रूप में भोजन तथा रुपया पैसा दिया जाता था, ऐसे उसके अनेक आदमी अजादि और महिषादि पशुओं का संरक्षण-संगोपन करते हुए उन पशुओं को बाड़े में रोके रहते थे। अनेक नौकर पुरुष सैकड़ों तथा हजारों अजों तथा भैसों को मारकर उनके माँसों को कैंची तथा छूरी से काटकर छण्णिक छागलिक को दिया करते थे। उसके अन्य अनेक नौकर उन बहुत से बकरों के माँसों तथा महिषों के माँसों को तवों पर, कड़ाहों में, हांडों में अथवा कड़ाहियों या लोहे के पात्रविशेषों में, भूनने के पात्रों में, अंगारों पर तलते, भूनते और शूल द्वारा पकाते हुए अपनी आजीविका चलाते थे । वह छणिक स्वयं भी उन माँसों के साथ सूरा आदि पाँच प्रकार के मद्यों का आस्वादन विस्वादन करता हुआ वह जीवनयापन कर रहा था । उस छण्णिक छागलिक ने अजादि पशुओं के माँसों को खाना तथा मदिराओं का पीना अपना कर्तव्य बना लिया था । इन्हीं पापपूर्ण प्रवृत्तियों में वह सदा तत्पर रहता था । और ऐसे ही पापपूर्ण कर्मों को उसने अपना सर्वोत्तम आचरण बना रखा था । अत एव वह क्लेशोत्पादक और कालुष्य पूर्ण अत्यधिक क्लिष्ट कर्मों का उपार्जन कर, सात सौ वर्ष की आयु पालकर कालमास में काल करके चतुर्थ नरक में, उत्कृष्ट दस सागरोपम स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। सूत्र - २५
तदनन्तर उस सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नामकी भार्या जातनिन्दुका थी । उसके उत्पन्न होते हुए बालक मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे । इधर छण्णिक नामक छागलिक का जीव चतुर्थ नरक से नीकलकर सीधा इसी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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