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आगम सूत्र- ८, अंगसूत्र- ८, ' अंतकृत् दशा '
वर्ग / अध्ययन / सूत्रांक
इधर वह मुद्गरपाणि यक्ष उस हजार पल के लोहमय मुद्गर को घूमाता हुआ जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था वहाँ आया । परन्तु सुदर्शन श्रमणोपासक को अपने तेज से अभिभूत नहीं कर सका अर्थात् उसे किसी प्रकार से कष्ट नहीं पहुँचा सका । मुद्गरपाणि यक्ष सुदर्शन श्रावक के चारों ओर घूमता रहा और जब उसको अपने तेज से पराजित नहीं कर सका तब सुदर्शन श्रमणोपासक के सामने आकर खड़ा हो गया और अनिमेष दृष्टि से बहुत देर तक उसे देखता रहा । इसके बाद उस मुद्गरपाणि यक्ष ने अर्जुन माली के शरीर को त्याग दिया और उस हजार पल भार वाले लोहमय मुद्गर को लेकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया । मुद्गरपाणि यक्ष से मुक्त होते ही अर्जुन मालाकार धस् इस प्रकार के शब्द के साथ भूमि पर गिर पड़ा। तब सुदर्शन श्रमणोपासक ने अपने को उपसर्ग रहित हुआ जानकर अपनी प्रतिज्ञा का पारण किया और अपना ध्यान खोला ।
इधर वह अर्जुन माली मुहूर्त्त भर के पश्चात् आश्वस्त एवं स्वस्थ होकर उठा और सुदर्शन श्रमणोपासक को सामने देखकर इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! आप कौन हो ? तथा कहाँ जा रहे हो ?' यह सूनकर सुदर्शन श्रमणोपासक ने अर्जुन माली से इस तरह कहा- देवानुप्रिय में जीवादि नव तत्त्वों का ज्ञाता सुदर्शन नामक श्रमणोपासक हूँ और गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर को वंदन नमस्कार करने जा रहा हूँ। यह सूनकर अर्जुन माली सुदर्शन श्रमणोपासक से बोला- 'हे देवानुप्रिय ! मैं भी तुम्हारे साथ श्रमण भगवान महावीर को वंदना यावत् पर्युपासना करना चाहता हूँ ।' सुदर्शन ने अर्जुन माली से कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो ।' इसके बाद सुदर्शन श्रमणोपासक अर्जुन माली के साथ जहाँ गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर बिराजमान थे, वहाँ आया और अर्जुन माली के साथ श्रमण भगवान महावीर को आदक्षिण प्रदक्षिणा की, यावत् उस समय श्रमण भगवान महावीर ने सुदर्शन श्रमणोपासक, अर्जुन माली और उस विशाल सभा के सम्मुख धर्मकथा कही । सुदर्शन धर्मकथा सूनकर अपने घर लौट गया ।
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अर्जुन माली श्रमण भगवान महावीर के पास धर्मोपदेश सूनकर एवं धारण कर अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुआ और प्रभु महावीर को तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा कर, वंदन नमस्कार करके इस प्रकार बोला- भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, रुचि करता हूँ, यावत् आपके चरणों में प्रव्रज्या लेना चाहता हूँ । भगवान महावीर ने कहा-'' देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो ।' तब अर्जुन माली ने ईशानकोण में जाकर स्वयं ही पंचमौष्टिक लुंचन किया, वे अनगार हो गये । संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । इसके पश्चात् अर्जुन मुनि ने जिस दिन मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण की, उसी दिन इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया - " आज से मैं निरन्तर बेले - बेले की तपस्या से आजीवन आत्मा को भावित करते हुए विचरूँगा ।" इसके पश्चात् अर्जुन मुनि बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे प्रहर में ध्यान करते । फिर तीसरे प्रहर में राजगृह नगर में भिक्षार्थ भ्रमण करते थे ।
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उस समय अर्जुन मुनि को राजगृह नगर में उच्च-नीच - मध्यम कुलों में भिक्षार्थ घूमते हुए देखकर नगर के अनेक नागरिक-स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध इस प्रकार कहते -' इसने मेरे पिता को मारा है । इसने मेरी माता को मारा है। भाई को, बहन को, भार्या को, पुत्र को, कन्या को, पुत्रवधू को, एवं इसने मेरे अमुक स्वजन संबंधी या परिजन को मारा है । ऐसा कहकर कोई गाली देता यावत् ताड़ना करता। इस प्रकार उन बहुत से स्त्री-पुरुष, बच्चे, बूढ़े और जवानों से आक्रोश यावत् ताड़ित होते हुए भी वे अर्जुन मुनि उन पर मन से भी द्वेष नहीं करते हुए उनके द्वारा दिये गये सभी परीषहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए उन कष्टों को समभाव से झेल लेते एवं निर्जरा लाभ समझते हुए राजगृह नगर के छोटे, बड़े एवं मध्यम कुलों में भिक्षा हेतु भ्रमण करते हुए अर्जुन मुनि को कभी भोजन मिलता तो पानी नहीं मिलता और पानी मिलता तो भोजन नहीं मिलता । वैसी स्थिति में जो भी और जैसा भी अल्प स्वल्प मात्रा में प्रासुक भोजन उन्हें मिलता उसे वे सर्वथा अदीन, अविमन, अकलुष, अमलिन, आकुलव्याकुलता रहित अखेद-भाव से ग्रहण करते, थकान अनुभव नहीं करते ।
इस प्रकार वे भिक्षार्थ भ्रमण करके वे राजगृह नगर से नीकलते और गुणशील उद्यान में, जहाँ श्रमण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा)" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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