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आगम सूत्र-८, अंगसूत्र-८, 'अंतकृत् दशा'
वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक ज्ञाता था यावत् अपनी आत्मा को भावित-वासित करते हुए विहरण कर रहे थे । उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह पधारे और बाहर उद्यान में ठहरे । उनके पधारने के समाचार सूनकर राजगृह नगर के शृंगाटक राजमार्ग आदि स्थानों में बहुत से नागरिक परस्पर इस तरह वार्तालाप करने लगे-यावत् विपुल अर्थ को ग्रहण करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है ? इस प्रकार बहुत से नागरिकों के मुख से भगवान के पधारने के समाचार सूनकर सुदर्शन शेठ के मन में इस प्रकार, चिंतित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ- 'निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर नगर में पधारे हैं और बाहर गुणशीलक उद्यान में विराजमान हैं, इसलिए मैं जाऊं और श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार करूँ ।' ऐसा सोचकर वे अपने माता-पिता के पास आए और हाथ जोड़कर बोले
हे माता-पिता ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी नगर के बाहर उद्यान में बिराज रहे हैं । अतः मैं चाहता हूँ कि मैं जाऊं और उन्हें वंदन-नमस्कार करूँ। यावत पर्यपासना करूँ | यह सनकर माता-पिता, सदर्शन शेठ से इस प्रकार बोले-हे पुत्र ! निश्चय ही अर्जुन मालाकार यावत मनुष्यों को मारता हआ घूम रहा हे इसलिए हे पुत्र ! तुम श्रमण भगवान महावीर को वंदन करे के लिए नगर के बाहर मत नीकलो । सम्भव है तुम्हारे शरीर को हानि हो जाए। अतः यही अच्छा है कि तुम यहीं से श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार कर लो।' तब सुदर्शन शेठ ने कहा "हे माता-पिता ! जब श्रमण भगवान महावीर यहाँ पधारे हैं, और बाहर उद्यान में बिराजमान हैं तो मैं उनको यहीं से वंदन-नमस्कार करूँ यह कैसे हो सकता है । अतः आप मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं वहीं जाकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन करूँ, नमस्कार करूँ यावत् उनकी पर्युपासना करूँ ।' सुदर्शन शेठ को माता-पिता जब अनेक प्रकार की युक्तियों से नहीं समझा सके तब माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक इस प्रकार कहा
'हे पुत्र ! फिर जिस प्रकार तुम्हें सुख उपजे वैसा करो ।' सुदर्शन शेठ ने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करके स्नान किया और धर्मसभा में जाने योग्य शुद्ध मांगलिक वस्त्र धारण किये फिर अपने घर से नीकला और पैदल ही राजगृह नगर के मध्य से चलकर मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन के न अति दूर और न अति निकट से होते हुए जहाँ गुणशील नामक उद्यान और जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे उस ओर जाने लगा । तब उस मुद्गरपाणि यक्ष ने सुदर्शन श्रमणोपासक को समीप से ही जाते हुए देखा । देखकर वह क्रुद्ध हुआ, रुष्ट हुआ, कुपित हुआ, कोपातिरेक से भीषण बना हुआ, क्रोध की ज्वाला से जलता हुआ, दाँत पीसता हुआ वह हजार पल भार वाले लोहे के मुद्गर को घूमात-घूमाते जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था, उस ओर आने लगा । उस समय क्रुद्ध मुद् गरपाणि यक्ष को अपनी ओर आता देखकर सुदर्शन श्रमणोपासक मृत्यु की संभावना को जानकर भी किंचित् भय, त्रास, उद्वेग अथवा क्षोभ को प्राप्त नहीं हआ । उसका हृदय तनिक भी विचलित अथवा भयाक्रान्त नहीं हुआ। उसने निर्भय होकर अपने वस्त्र के अंचल से भूमि का प्रमार्जन किया । फिर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठ गया ! बैठकर बाएं घूटने को ऊंचा किया और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलिपुट रखा । इसके बाद इस प्रकार बोला
मैं उन सभी अरिहंत भगवंतों को, जो अतीतकाल में मोक्ष पधार गए हैं, एवं धर्म के आदिकर्ता तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर को जो भविष्य में मोक्ष पधारने वाले हैं, नमस्कार करता हूँ | मैंने पहले श्रमण भगवान महावीर से स्थूल प्राणातिपात का आजीवन त्याग किया, स्थूल मषावाद, स्थूल अदत्तादान का त्याग किया, स्वदार संतोष और ईच्छापरिणाम रूप व्रत जीवनभर के लिए ग्रहण किया है । अब उन्हीं की साक्षी से प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और संपूर्ण-परिग्रह का सर्वथा आजीवन त्याग करता हूँ। मैं सर्वथा क्रोध, यावत्
पादर्शन शल्य तक के समस्त पापों का भी आजीवन त्याग करता हूँ। सब प्रकार का अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का भी त्याग करता हूँ । यदि मैं इस आसन्नमृत्यु उपसर्ग से बच गया तो पारणा करके आहारादि ग्रहण करूँगा । यदि मुक्त न होऊं तो मुझे यह संपूर्ण त्याग यावज्जीवन हो । ऐसा निश्चय करके सुदर्शन शेठ ने उपर्युक्त प्रकार से सागारी पडिमा धारण की।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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