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आगम सूत्र- ८, अंगसूत्र- ८, 'अंतकृत् दशा'
वर्ग / अध्ययन / सूत्रांक प्राप्त हो जाएगा। उस समय तुम समझ लेना कि यह वही पुरुष है। अरिष्टनेमि को वंदन एवं नमस्कार करके श्रीकृष्ण ने वहाँ से प्रस्थान किया और अपने प्रधान हस्तिरत्न पर बैठकर अपने घर की ओर रवाना हुए। उधर उस सोमिल ब्राह्मण के मन में दूसरे दिन सूर्योदय होते ही इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ निश्चय ही कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्टनेमि के चरणों में वंदन करने के लिये गए हैं। भगवान तो सर्वज्ञ हैं उनसे कोई बात छिपी नहीं है । भगवान ने गजसुकुमाल की मृत्यु सम्बन्धी मेरे सम्बन्धी मेरे कुकृत्य को जान लिया होगा, पूर्णतः विदित कर लिया होगा। यह सब भगवान से स्पष्ट समझ सून लिया होगा । अरिहंत अरिष्टनेमि ने अवश्यमेव कृष्ण वासुदेव को यह सब बता दिया होगा । तो ऐसी स्थिति में कृष्ण वासुदेव रुष्ट होकर मुझे न मालूम किस प्रकार की कुमौत से मारेंगे । इस विचार से डरा हुआ वह अपने घर से नीकलता है, नीकलकर द्वारका नगरी में प्रवेश करते हुए कृष्ण वासुदेव के एकदम सामने आ पड़ता है ।
उस समय सोमिल ब्राह्मण कृष्ण वासुदेव को सहसा सम्मुख देख कर भयभीत हुआ और जहाँ का तहाँ स्तम्भित खड़ा रह गया। वहीं खड़े-खड़े ही स्थितिभेद से अपना आयुष्य पूर्ण हो जाने से सर्वांग शिथिल हो धड़ाम से भूमितल पर गिर पड़ा। उस समय कृष्ण वासुदेव सोमिल ब्राह्मण को गिरता हुआ देखते हैं और देखकर इस प्रकार बोलते हैं—'' अरे देवानुप्रियों ! यही वह मृत्यु की ईच्छा करने वाला तथा लज्जा एवं शोभा से रहित सोमिल ब्राह्मण है, जिसने मेरे सहोदर छोटे भाई गजसुकुमाल मुनि को असमय में ही काल का ग्रास बना डाला ।" ऐसा कहकर कृष्ण वासुदेव ने सोमिल ब्राह्मण के उस शव को चांडालों के द्वारा घसीटवा कर नगर के बाहर फिंकवा दिया और उस शब के स्पर्श वाली भूमि को पानी से धुलवाकर कृष्ण वासुदेव अपने राजप्रासाद में पहुँचे और अपने आगार में प्रविष्ट हुए । हे जंबू ! यावत् मोक्ष-सम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृद्दशांग सूत्र के तृतीय वर्ग के अष्टम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है ।
वर्ग-३ अध्ययन- ९ से १३
सूत्र - १४
" हे जंबू ! उस काल उस समय में द्वारका नामक नगरी थी, एक दिन भगवान अरिष्टनेमि तीर्थंकर विचरते हुए उस नगरी में पधारे । वहाँ बलदेव राजा था । वर्णन समझ लेना । उसकी धारिणी रानी थी । (वर्णन), उस धारिणी रानी ने सिंह का स्वप्न देखा, तदनन्तर पुत्रजन्म आदि का वर्णन गौतमकुमार की तरह जान लेना । विशेषता यह कि वह बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला हुआ । शेष उसी प्रकार यावत् शत्रुंजय पर्वत पर सिद्धि प्राप्त की । "हे जंबू ! इस प्रकार यावत् मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने अन्तगडसूत्र के तृतीय वर्ग के नवम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है, ऐसा मैं कहता हूँ ।"
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इसी प्रकार दुर्मुख और कूपदारक कुमार का वर्णन जानना दोनों के पिता बलदेव और माता धारिणी थी। दारुक और अनाधृष्टि भी इसी प्रकार हैं। विशेष यह है कि वसुदेव पिता और धारिणी माता थी। श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा- " हे जंबू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त प्रभु ने तीसरे वर्ग के तेरह अध्ययनों का यह भाव फरमाया है।"
वर्ग-३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( अंतकृद्दशा ) " आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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