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आगम सूत्र-८, अंगसूत्र-८, 'अंतकृत् दशा'
वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक शुभ अध्यवसायों के फलस्वरूप आत्मगुणों को आच्छादित करनेवाले कर्मों के क्षय से समस्त कर्मरज को झाड़कर साफ कर देने वाले, कर्म-विनाशक अपूर्ण-करण में प्रविष्ट हुए । उन गजसुकुमाल अनगार को अनंत अनुत्तर यावत् केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उपलब्धि हुई । तत्पश्चात् आयुष्य पूर्ण हो जाने पर वे सिद्ध-कृतकृत्य, यावत् सर्व प्रकार के दुःखों से रहित हो गए। उस समय वहाँ समीपवर्ती देवों ने 'अहो ! इन गजसुकुमाल मुनि ने श्रमणधर्म की अत्यन्त उत्कृष्ट आराधना की है। यह जानकर अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा दिव्य सुगन्धित जल की तथा पाँच वर्गों के दिव्य फूलों एवं वस्त्रों की वर्षा की और दिव्य मधुर गीतों तथा गन्धर्ववाद्ययन्त्रों की ध्वनि से आकाश को गँजा दिया।
तदनन्तर कृष्ण वासुदेव दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर स्नान कर वस्त्रालंकारों से विभूषित हो, हाथी पर आरूढ़ हुए । कोरंट पुष्पों की माला वाला छत्र धारण किया हुआ था । श्वेत एवं उज्ज्वल चामर उनके दायें-बायें ढोरे जा रहे थे । वे जहाँ भगवान अरिष्टनेमि विराजमान थे, वहाँ के लिए रवाना हए । तब कृष्ण वासुदेव ने द्वारका नगरी के मध्य भाग से जाते समय एक पुरुष को देखा, जो अति वृद्ध, जरा से जर्जरित एवं थका हआ था। वह बहुत दुःखी था । उसके घर के बाहर राजमार्ग पर ईंटों का एक विशाल ढेर पड़ा था जिसे वह वृद्ध एकएक ईट करके अपने घर में स्थानान्तरित कर रहा था । तब उन कृष्ण वासुदेव ने उस पुरुष की अनुकंपा के लिए हाथी पर बैठे हुए ही एक ईंट उठाई, उठाकर बाहर रास्ते से घर के भीतर पहुँचा दी । तब कृष्ण वासुदेव के द्वारा एक ईंट उठाने पर अनेक सैकड़ों पुरुषों द्वारा वह बहुत बड़ा ईंटो का ढेर बाहर गली में से घर की भीतर पहुँचा दिया गया।
वृद्ध पुरुष की सहायता करने के अनन्तर कृष्ण वासुदेव द्वारका नगरी के मध्य में से होते हुए जहाँ भगवंत अरिष्टनेमि विराजमान थे वहाँ आ गए । यावत् वंदन-नमस्कार किया । बाद पूछा-''भगवन् ! मेरे सहोदर लघुभ्राता मुनि गजसुकुमाल कहाँ हैं ? मैं उनको वन्दना-नमस्कार करना चाहता हूँ ।' अरिहंत अरिष्टनेमि ने कहा मुनि गजसुकुमाल ने मोक्ष प्राप्त करने का अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया है । कृष्ण वासुदेव अरिष्टनेमि भगवान् के चरणों में पनः निवेदन करने लगे-भगवन ! मनि गजसकमाल ने अपना प्रयोजन कैसे सिद्ध कर लिया है ? "हे कृष्ण ! वस्तुतः कल के दिन के अपराह्न काल के पूर्व भाग में गजसुकुमाल मुनि ने मुझे वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-हे प्रभो ! आपकी आज्ञा हो तो मैं महाकाल श्मशान में एक रात्रि की महाभिक्षप्रतिमा धारण करके विचरना चाहता हूँ । यावत् भिक्षु की महाप्रतिमा धारण करके ध्यानस्थ खड़े हो गए । इसके बाद गजसुकुमाल मुनि को एक पुरुष ने देखा और देखकर वह उन पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । इत्यादि, इस प्रकार गजसुकुमाल मुनि ने अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया।
यह सूनकर कृष्ण वासुदेव भगवान नेमिनाथ से इस प्रकार पूछने लगे-'भंते ! वह अप्रार्थनीय का प्रार्थी अर्थात् मृत्यु को चाहने वाला, यावत् निर्लज्ज पुरुष कौन है जिसने मेरे सहोदर लघु भ्राता गजसुकुमाल मुनि का असमय में ही प्राण-हरण कर लिया ?" तब अर्हत् अरिष्टनेमि कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोले-'हे कृष्ण ! तुम उस पुरुष पर द्वेष-रोष मत करो, क्योंकि उस पुरुष ने सुनिश्चित रूपेण गजसुकुमाल मुनि को अपना अपना प्रयोजन सिद्ध करने में सहायता प्रदान की है ।'' यह सूनकर कृष्ण वासुदेव ने पुनः प्रश्न किया-'हे पूज्य ! उस पुरुष ने गजसुकुमाल मुनि को किस प्रकार सहायता दी ?' अर्हत् अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया-"कृष्ण ! मेरे चरणवंदन के हेतु शीघ्रतापूर्वक आते समय तुमने द्वारका नगरी में एक वृद्ध पुरुष को देखा यावत् हे कृष्ण ! वस्तुतः जिस तरह तुमने उस पुरुष का दुःख दूर करने में उसकी सहायता की, उसी तरह हे कृष्ण ! उस पुरुष ने भी अनेकानेक लाखों भवों के संचित कर्मों की राशि की उदीरणा करने में संलग्न गजसुकुमाल मुनि को उन कर्मों की संपूर्ण निर्जरा करने में सहायता प्रदान की है।
कृष्ण वासुदेव फिर निवेदन करने लगे-''भगवन् ! मैं उस पुरुष को किस तरह पहचान सकता हूँ ?' भगवान अरिष्टनेमि कहने लगे-'कृष्ण ! यहाँ से लौटने पर जब तुम द्वारका नगरी में प्रवेश करोगे तो उस समय एक पुरुष तुम्हें देखकर भयभीत होगा, वह वहाँ पर खड़ा-खड़ा ही गिर जाएगा । आयु की समाप्ति हो जाने से मृत्यु को
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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