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आगम सूत्र- ८, अंगसूत्र- ८, ' अंतकृत् दशा '
वर्ग / अध्ययन / सूत्रांक
गजसुकुमार अपने बड़े भाई कृष्ण वासुदेव एवं माता-पिता को दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार बोले
'हे देवानुप्रियों ! वस्तुतः मनुष्य के कामभोग एवं देह यावत् नष्ट होने वाले हैं। इसलिए हे देवानुप्रियों ! मैं चाहता हूँ कि आपकी आज्ञा मिलने पर मैं अरिहंत अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर लूँ ।" तदनन्तर गजसुकुमाल कुमार को कृष्ण-वासुदेव और माता-पिता जब बहुत-सी अनुकूल और स्नेहभरी युक्तियों से भी समझाने में समर्थ नहीं हुए तब निराश होकर श्रीकृष्ण एवं माता-पिता इस प्रकार बोले -"यदि ऐसा ही है तो हे पुत्र ! हम एक दिन ही तुम्हारी राज्यश्री देखना चाहते हैं । इसलिए तुम कम से कम एक दिन के लिए तो राजलक्ष्मी को स्वीकार करो।" तब गजसुकुमार कुमार वासुदेव कृष्ण और माता-पिता की ईच्छा का अनुसरण करके चूप रह गए। यावत् गजसुकुमाल राज्याभिषेक से अभिषिक्त हो गए। जगसुकुमाल राजा हो गए। यावत् हे पुत्र ! हम तुझे क्या देवे ? क्या प्रयोजन है ? तब गजसुकुमाल ने कहा " हे मातापिता ! मेरे लिए रजोहरण और पात्र मँगवाना तथा नापित को बुलाना चाहता हूँ ।" यावत् महाबलकुमार की तरह गजसुकुमाल भी प्रव्रजित हो गए । इरिया समिति आदि का पालन करने लगे यावत् जितेन्द्रिय होकर शुद्ध ब्रह्मचर्य की परिपालना करने लगे ।
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श्रमणधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् गजसुकुमाल मुनि जिस दिन दीक्षित हुए, उसी दिन के पीछले भाग में जहाँ अरिहंत अरिष्टनेमि बिराजमान थे, वहाँ आकर उन्होंने भगवान नेमीनाथ की प्रदक्षिणा करके इस प्रकार बोले'भगवन्! आपकी अनुज्ञा प्राप्त होने पर मैं महाकाल श्मशान में एक रात्रि की महापडिमा धारण कर विचरना चाहता हूँ। प्रभु ने कहा- हे देवानुप्रिय ! जिससे तुम्हें सुख प्राप्त हो वही करो। तदनन्तर वह गजसुकुमाल मुनि अरिहंत अरिष्टनेमि की आज्ञा मिलने पर, भगवान नेमिनाथ को वंदन नमस्कार करते हैं । अर्हत् अरिष्टनेमि के सान्निध्य से चलकर सहस्राम्रवन उद्यान से नीकले। जहाँ महाकाल श्मशान था, वहाँ आते हैं। प्रासुक स्थंडिल भूमि की प्रतिलेखना करते हैं। पश्चात् उच्चार-प्रसवण त्याग के योग्य भूमि का प्रतिलेखन करते हैं। पश्चात् एक स्थान पर खड़े हो अपनी देह-यष्टि को किंचित् झुकाये हुए, यावत् दोनों पैरों को एकत्र करके एक रात्रि की महाप्रतिमा अंगीकार कर ध्यान में मग्न हो जाते हैं ।
इधर सोमिल ब्राह्मण समिधा लाने के लिए द्वारका नगरी के बाहर सुकुमाल अणगार के श्मशानभूमि में से पूर्व ही नीला था। वह समिधा, दर्भ, कुश, डाभ एवं में पत्रामोडों को लेता है । उन्हें लेकर वहाँ से अपने घर की तरफ लौटता है । लौटते समय महाकाल श्मशान के निकट से जाते हुए संध्याकाल की बेला में, जब मनुष्यों का गमनागमन नहीं के समान हो गया था, उसने गजसुकुमाल मुनि को वहाँ ध्यानस्थ खड़े देखा । उन्हें देखते ही सोमिल के हृदय में बैरभाव जागृत हुआ। वह क्रोध से तमतमा उठता है और मन ही मन इस प्रकार बोलता है-अरे ! यह तो वही अप्रार्थनीय का प्रार्थी यावत् लज्जा परिवर्जित, गजसुकुमाल कुमार है, जो मेरी निर्दोष पुत्री सोमा कन्या को अकारण ही त्याग कर मुण्डित हो यावत् श्रमण बन गया है । इसलिए मुझे निश्चय ही गजकुमाल से इस वैर का बदला लेना चाहिए। इस प्रकार वह सोमिल सोचता है और सोचकर सब दिशाओं की ओर देखता है कि कहीं से कोई देख तो नहीं रहा है । इस विचार से चारों ओर देखता हुआ पास के ही तालाब से वह गिली मिट्टी लेता है, गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर पाल बाँधकर जलती हुई चिता में से फूले हुए किंशुक के फूल के समान लाल-लाल खेर के अंगारों को किसी खप्पर में लेकर उन दहकते हुए अंगारों को गजसुकुमाल मुनि के सिर पर रख देता है। रखने के बाद इस भय से कि कहीं उसे कोई देख न ले, भयभीत होकर घबरा कर त्रस्त होकर एवं उद्विग्न होकर वह वहाँ से शीघ्रतापूर्वक पीछे की ओर हटता हुआ भागता है । वहाँ से भागता हुआ वह सोमिल जिस ओर से आया था उसी ओर चला जाता है ।
सिर पर उन जाज्वल्यमान अंगारों के रखे जाने से गजसुकुमाल मुनि के शरीर में महाभयंकर वेदना उत्पन्न हुई जो अत्यन्त दाहक दुःखपूर्ण यावत् दुस्सह थी । इतना होने पर भी गजसुकुमाल मुनि सोमिल ब्राह्मण पर मन से भी, लेशमात्र भी द्वेष नहीं करते हुए उस एकान्त दुःखरूप यावत् दुस्सह वेदना को समभावपूर्वक सहन करने लगे। उस समय उस एकान्त दुःखपूर्ण दुःसह दाहक वेदना को समभाव से सहन करते हुए शुभ परिणामों तथा प्रशस्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत्" (अंतकृद्दशा) आगमसूत्र हिन्द- अनुवाद"
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