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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १२
गौतम ने भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और पूछा-भन्ते ! क्या श्रमणोपासक आनन्द देवानुप्रिय के-आपके पास मुण्डित एवं परिवजित होने में समर्थ है ? गौतम ! ऐसा संभव नहीं है । श्रमणोपासक आनन्द बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय-का पालन करेगा वह सौधर्म-कल्प-में-सौधर्मनामक देवलोक में अरुणाभ नामक विमान में देव के रूप में उत्पन्न होगा । वहाँ अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम की होती है। श्रमणोपासक आनन्द की भी आयु-स्थिति चार पल्योपम की होगी । तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर वाणिज्यग्राम नगर के दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान कर एक दिन किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए। सूत्र - १३
तब आनन्द श्रमणोपासक हो गया । जीव-अजीव का ज्ञाता हो गया यावत श्रमणनिर्ग्रन्थों का अशन आदि से सत्कार करता हुआ विचरण करने लगा । उसकी भार्या शिवानंदा भी श्रमणोपासिका होकर श्रमणनिर्ग्रन्थों का सत्कार करती हई विचरण करने लगी। सूत्र - १४
तदनन्तर श्रमणोपासक आनन्द को अनेकविध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान-पोषधोपवास आदि द्वारा आत्म-भावित होते हुए-चौदह वर्ष व्यतीत हो गए । जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चूका था, एक दिन आधी रात के बाद धर्म-जागरण करते हुए आनन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव-चिन्तन, आन्तरिक मांग, मनोभाव या संकल्प उत्पन्न हुआ-वाणिज्यग्राम नगर में बहुत से मांडलिक नरपति, ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुष आदि के अनेक कार्यों में मैं पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य हूँ, अपने सारे कुटुम्ब का मैं आधार हूँ । इस व्याक्षेप-के कारण मैं श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप आचार का सम्यक् परिपालन नहीं कर पा रहा हूँ । इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं कल प्रभात हो जाने पर, मैं पूरण की तरह यावत् कुटुम्बीजनों को निमंत्रणा करके यावत् अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त करूँगा-अपने मित्र-गण तथा ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर कोल्लाक-सन्निवेश में स्थित ज्ञातकुल की पोषध-शाला का प्रतिलेखन कर भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप आचार का परिपालन करूँगा । यों आनन्द ने संप्रेक्षण किया । वैसा कर, दूसरे दिन अपने मित्रों, जातीय जनों आदि को भोजन कराया । तत्पश्चात् उनका प्रचुर पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला एवं आभूषणों से सत्कार किया, सम्मान किया। उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया । बुलाकर, जैसा सोचा था, यह सब उसे कहा-पुत्र ! वाणिज्यग्राम नगर में मैं बहुत से मांडलिक राजा, ऐश्वर्यशाली पुरुषों आदि से सम्बद्ध हूँ, यावत् मैं समुचित धर्मोपासना कर नहीं पाता । अतः मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि तुमको अपने कुटुम्ब के मेढ़ि, प्रमाण, आधार एवं आलम्बन के रूप में स्थापित कर मैं यावत् समुचित धर्मोपासना में लग जाऊं। तब श्रमणोपासक आनन्द के ज्येष्ठ पुत्र ने जैसी आपकी आज्ञा' यों कहते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक अपने पिता का कथन स्वीकार किया । श्रमणोपासक आनन्द ने अपने मित्र-वर्ग, जातीय जन आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में अपने स्थान पर स्थापित किया । वैसा कर उपस्थित जनों से उसने कहा-महानुभावो ! आज से आप में से कोई भी मुझे विविध कार्यों के सम्बन्ध में न कुछ पूछे और न परामर्श ही करे, मेरे हेतु अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि आहार तैयार न करे और न मेरे पास लाए । फिर आनन्द ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, मित्र-वन्द जातीय जन आदि की अनुमति ली । अपने घर से प्रस्थान किया । वाणिज्यग्राम नगर से, जहाँ कोल्लाक सन्निवेश था, ज्ञातकुल एवं ज्ञातकुल की पौषधशाला थी, वहाँ पहुँचा । पोषध-शाला का प्रमार्जन किया-शौच एवं लघुशंका के स्थान की प्रतिलेखना की । वैसा कर दर्भ-का संस्तारक-लगाया, उस पर स्थित होकर पोषधशाला में पोषध स्वीकार कर श्रमण भगवान महावीर के पास स्वीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-के अनुरूप साधना-निरत हो गया। सूत्र-१५
तदनन्तर श्रमणोपासक आनन्द ने उपासक-प्रतिमाएं स्वीकार की । पहली उपासक-प्रतिमा उसने यथाश्रुत
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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