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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/ सूत्रांक अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटीकर्म, स्फोटनकर्म, दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, केशवाणिज्य, यन्त्रपीडनकर्म, निल्छन-कर्म, दवाग्निदापन, सर-ह्रद-तडागशोषण तथा असती-जनपोषण । उसके बाद श्रमणोपासक को अनर्थ-दंड-विरमण व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, संयुक्ताधिकरण तथा उपभोग परिभोगातिरेक ।
तत्पश्चात् श्रमणोपासक को सामायिक व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । मन-दुष्प्रणिधान, वचन-दुष्प्रणिधान, काय-दुष्प्रणिधान, सामायिक-स्मृति-अकरणता, सामायिकअनवस्थित-करणता । तदनन्तर श्रमणोपासक को देशावकाशिक व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना । आनयन-प्रयोग, प्रेष्य-प्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात तथा बहिःपुद्गल-प्रक्षेप । तदनन्तर श्रमणोपासक को पोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखित-शय्या-संस्तारक, अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जित-शय्यासंस्तारक, अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रस्रवण-भूमि, अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जित-उच्चारप्रस्रवणभूमि तथा पोषधोपवास-सम्यक्-अननुपालन । तत्पश्चात् श्रमणोपासक को यथा-संविभाग व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । सचित्तनिक्षेपणता, सचित्तपिधान, कालातिक्रम, परव्यपदेश तथा मत्सरिता । तदनन्तर अपश्चिममरणांतिक-संलेषणा-जोषणाआराधना के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। इहलोक-आशंसाप्रयोग, परलोक-आशंसाप्रयोग, जीवित-आशंसाप्र०, मरण-आशंसाप्र०,काम-भोग-आशंसाप्र० सूत्र-१०
फिर आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान महावीर के पास पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार किया । भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार कर वह भगवान से यों बोलाभगवन् आज से अन्य यूथिक-उनके देव, उन द्वारा परिगृहीत-चैत्य-उन्हें वन्दना करना, नमस्कार करना, उनके पहले बोले बिना उनसे आलाप-संलाप करना, उन्हें अशन-पान-खादिम-स्वादिम-प्रदान करना, अनुप्रदान करना मेरे लिए कल्पनीय-नहीं है । राजा, गण-बल-देव व माता-पिता आदि गुरुजन का आदेश या आग्रह तथा अपनी आजीविका के संकटग्रस्त होने की स्थिति-मेरे लिए इसमें अपवाद है। श्रमणों, निर्ग्रन्थों को प्रासुक-अचित्त, एषणीय-अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन-पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, संस्तारक, भेषज-दवा देना मुझे कल्पता है । आनन्द ने यों अभिग्रह - किया । वैसा कर भगवान से प्रश्न पूछे । प्रश्न पूछकर उनका अर्थ-प्राप्त किया । श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वंदना की। भगवान के पास से दूतीपलाश नामक चैत्य से रवाना हआ । जहाँ वाणिज्यग्राम नगर था, जहाँ अपना घर था, वहाँ आया । अपनी पत्नी शिवनन्दा को बोला-देवानुप्रिये ! मैंने श्रमण भगवान के पास से धर्म सूना है । वह धर्म मेरे लिए इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर है । देवानुप्रिये ! तुम भगवान महावीर के पास जाओ, उन्हें वन्दना करो, पर्युपासना करो, पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत-रूप बारह प्रकार का गृहस्थ-धर्म स्वीकार करो। सूत्र - ११
श्रमणोपासक आनन्द ने जब अपनी पत्नी शिवानन्दा से ऐसा कहा तो उसने हृष्ट-तुष्ट-अत्यन्त प्रसन्न होते हुए हाथ जोड़े, 'स्वामी ऐसा है । तब श्रमणोपासक आनन्द ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा-तेज चलने वाले, यावत् श्रेष्ठ रथ शीघ्र ही उपस्थित करो, उपस्थित करके मेरी यह आज्ञा वापिस करो । तब शिवनन्दा वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई । भगवान महावीर विराजित थे वहाँ जाकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, यावत् पर्युपासना करने लगी । श्रमण भगवान महावीर ने शिवनन्दा को तथा उस उपस्थित परीषद् को धर्म-देशना दी । तब शिवनन्दा श्रमण भगवान महावीर से धर्म सूनकर तथा उस हृदयमें धारण करके अत्यन्त प्रसन्न हुई । गृहीधर्म-स्वीकार किया, उसी धार्मिक उत्तम रथ पर सवार होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा की ओर चली गई
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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