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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/ सूत्रांक का परित्याग करता हूँ । इसके पश्चात् उसने पुष्प-विधि का परिमाण किया-मैं श्वेत कमल तथा मालती के फूलों की माला के सिवाय सभी फूलों का परित्याग करता हूँ। तब उसने आभरण-विधि का परिमाण किया-मैं शुद्ध सोने सादे कुंडल और नामांकित मुद्रिका के सिवाय सब प्रकार के गहनों का परित्याग करता हूँ। तदनन्तर उसने धूपनविधि का परिमाण किया । अगर, लोबान तथा धूप के सिवाय मैं सभी धूपनीय वस्तुओं का परित्याग करता हूँ
उसने भोजन-विधि का परिमाण किया । मैं एकमात्र काष्ठ पेय अतिरिक्त सभी पेय पदार्थों का परित्याग करता हूँ। उसने भक्ष्य-विधि का परिमाण किया । मैं-घेवर और खाजे के सिवाय और सभी पकवानों का परित्याग करता हूँ। उसने ओदनविधि का परिमाण किया-कलम जाति के धान चावलों के सिवाय मैं और सभी प्रकार के चावलों का परित्याग करता हूँ । उसने सूपविधि का परिमाण किया । मटर, मूंग और उरद की दाल के सिवाय मैं सभी दालों का परित्याग करता हूँ। घतविधि का परिमाण किया । शरद ऋतु के उत्तम गो-घत के सिवाय में सभी प्रकार के घृत का परित्याग करता हूँ।
उसने शाकविधि का परिमाण किया । बथुआ, लौकी, सुआपालक तथा भिंडी-इन सागों के सिवाय और सब प्रकार के सागों का परित्याग करता हूँ । माधुरकविधि का परिमाण किया । मैं पालंग माधुरक के गोंद से बनाए मधुर पेय के सिवाय अन्य सभी पेयों का परित्याग करता हूँ | व्यंजनविधि का परिमाण किया । मैं कांजी बड़े तथा खटाई बड़े मूंग आदि की दाल के पकौड़ों के सिवाय सब प्रकार के पदार्थों का परित्याग करता हूँ। पीने के पानी का परिमाण किया । मैं एकमात्र आकाश से गिरे-पानी के सिवाय अन्य सब प्रकार के पानी का परित्याग करता हूँ। मुखवासविधि का परिमाण किया । पाँच सुगन्धित वस्तुओ से युक्त पान के सिवाय मैं सभी पदार्थों का परित्याग करता हूँ ।तत्पश्चात् उसने चार प्रकार के अनर्थदण्ड-अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंस्र-प्रदान तथा पापकर्मोपदेश का प्रत्याख्यान किया। सूत्र-९
भगवान महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा-आनन्द ! जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को यथावत् रूप में जाना है, उसको सम्यक्त्व के पाँच प्रधान अतिचार जानने चाहिए और उनका आचरण नहीं करना चाहिए । यथा-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाषंड-प्रशंसा तथा पर-पाषंड-संस्तव । इसके बाद श्रमणोपासक को स्थूल-प्राणातिपातविरमण व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार, भक्त-पान-व्यवच्छेद । तत्पश्चात् स्थूल मृषावाद-विरमण व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । सहसा-अभ्याख्यान, रहस्य - अभ्याख्यान, स्वादरमंत्रभेद, मृषोपदेश, कूटलेखकरण । तदनन्तर स्थूल अदत्तादानविरमण-व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । स्नेहाहृत, तस्करप्रयोग, विरुद्धराज्यातिक्रम, कूटतुलाकूटमान, तत्प्रतिरूपकव्यवहार । तदनन्तर स्वदारसंतोष-व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । इत्वरिकपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा, पर-विवाहकरण तथा कामभोगतीव्राभिलाष । श्रमणोपासक को ईच्छा-परिमाण-व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । क्षेत्रवास्तु-प्रमाणतिक्रम, हिरण्यस्वर्ण-प्रमाणातिक्रम, द्विपदचतुष्पद-प्रमाणातिक्रम, धनधान्यप्रमाणातिक्रम, कुप्य-प्रमाणातिक्रम ।
तदनन्तर दिग्व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए । उनका आचरण नहीं करना चाहिए । ऊर्ध्व-दिक्प्रमाणातिक्रम, अधोदिक-प्रमाणातिक्रम, तिर्यक्-दिक-प्रमाणातिक्रम, क्षेत्र-वृद्धि, स्मृत्यन्तर्धान । उपभोग-परिभोग दो प्रकार का कहा गया है-भोजन की अपेक्षा से तथा कर्म की अपेक्षा से । भोजन की अपेक्षा से श्रमणोपासक को उपभोग-परिभोग व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । सचित्त आहार, सचित्त प्रतिबद्ध आहार, अपक्व औषधि-भक्षणता, दुष्पक्व औषधि-भक्षणता तथा तुच्छ औषधि-भक्षणता । कर्म की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पन्द्रह कर्मादानों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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