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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/ सूत्रांक -यथाकल्प-यथामार्ग, यथातत्त्व-सहज रूप में ग्रहण की, उसका पालन किया, उसे शोधित किया तीर्ण कियाकीर्तित किया-आराधित किया। सूत्र - १६
श्रमणोपासक आनन्द ने तत्पश्चात् दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवी, छठी, सातवी, आठवी, नौवी, दसवी तथा ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की। इस प्रकार श्रावक-प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल प्रयत्न तथा तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर सूख गया, शरीर की यावत् उसके नाड़ियाँ दीखने लगीं। एक दिन आधी रात के बाद धर्मजागरण करते हुए आनन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव या संकल्प उत्पन्न हुआ-शरीर में इतनी कृशता आ गई है कि नाड़ियाँ दीखने लगी हैं । मुझ में उत्थान-बल-वीर्य-पुरुषकार पराक्रम-श्रद्धा-धृतिसंवेग है । जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिन-श्रमण भगवान महावीर विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल सूर्योदय होने पर अन्तिम मरणान्तिक संलेखना स्वीकार कर लूँ, खान-पान का प्रत्याख्यान-कर दूँ, मरण की कामना न करता हआ, आराधनारत हो जाऊं | आनन्द ने यों चिन्तन किया। दूसरे दिन सवेरे अन्तिम मरणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान-पान परित्याग किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ वह आराधना में लीन हो गया । तत्पश्चात् श्रमणोपासक आनन्द को एक दिन शुभ अध्यवसाय-शुभ परिणामविशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण, अवधि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो गया । फलतः वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पाँच-सौ, पाँच-सौ योजन तक का लवणसमुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में हिमवान्-वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प-तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक-भूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति युक्त, लोलुपाच्युत नामक नरक तक जानने लगा, देखने लगा। सूत्र -१७
उस काल वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय भगवान महावीर समवसृत हुए । परिषद् जुड़ी, धर्म सूनकर वापिस लौट गई । उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्र-संस्थान-संस्थित थेकसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी-तप्ततपस्वी-जो उराल-घोरगुण-घोर तपस्वी-घोर ब्रह्मचर्यवासी-उत्क्षिप्तशरीर-जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे, बेले-बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए, संयमाराधना तथा तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित-करते हुए विहार करते थे। बेले के पारणे के दिन भगवान गौतम ने पहले प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में अत्वरित-अचल-असंभ्रान्त-मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन किया पात्र उठाये, जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आए । उन्हें वन्दन, नमस्कार किया । बोले-भगवन् ! आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर मैं आज बेले के पारणे के दिन वाणिज्यग्राम नगरमें उच्च निम्न मध्यम-सभी कुलोंमें गृह-समुदानीभिक्षा-चर्या के लिए जाना चाहता हूँ । भगवान बोले-देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, बिना प्रतिबन्ध-विलम्ब किए, करो । श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त कर भगवान गौतम ने दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान किया । बिना शीघ्रता किए, स्थिरतापूर्वक अनाकुल भाव से युग-परिमाण-मार्ग का परिलोकन करते हुए, ईर्यासमितिपूर्वकचलते हुए, वाणिज्यग्राम नगर आए । आकर वहाँ उच्च, निम्न एवं मध्यम कुलों में समुदानी-भिक्षा -हेतु घूमने लगे। भगवान गौतम ने व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णित भिक्षाचर्या के विधान के अनुरूप घूमते हुए यथापर्याप्त-उतना आहार-पानी भली-भाँति ग्रहण कर वाणिज्यग्राम नगर में चले । चलकर जब कोल्लाक सन्निवेश के न अधिक दूर, न अधिक निकट से नीकल रहे थे, तो बहुत से लोगों को बात करते सूना । देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी-श्रमणोपासक आनन्द पोषधशाला मे मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए अन्तिम संलेखना, स्वीकार किए आराधना-रत हैं । अनेक लोगों से यह बात सूनकर, गौतम के मन में ऐसा भाव, चिन्तन, विचार या संकल्प उठा-मैं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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