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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/सूत्रांक श्रमणोपासक आनन्द के पास जाऊं और उसे देखू । ऐसा सोचकर वे जहाँ कोल्लाक सन्निवेश था, श्रमणोपासक आनन्त था, पोषधशाला थी, वहाँ गए। सूत्र - १८
श्रमणोपासक आनन्त ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा । देखकर वह (यावत्) अत्यन्त प्रसन्न हुआ, भगवान गौतम को वन्दन-नमस्कार कर बोला-भगवन् ! मैं घोर तपश्चर्या से इतना क्षीण हो गया हूँ कि नाड़ियाँ दीखने लगी हैं । इसलिए देवानुप्रिय के-आपके पास आने तथा चरणों में वन्दना करने में असमर्थ हूँ । अत एव प्रभो ! आप ही स्वेच्छापूर्वक, अनभियोग से यहाँ पधारें, जिससे मैं वन्दन, नमस्कार कर सकूँ । तब भगवान् गौतम, जहाँ आनन्द श्रमणोपासक था, वहाँ गए । श्रमणोपासक आनन्द ने तीन बार मस्तक झुकाकर भगवान गौतम के चरणों में वन्दन, नमस्कार किया । वन्दन, नमस्कार कर वह यों बोला-भगवन् ! क्या घर में रहते हुए एक गृहस्थ को अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो सकता है ? गौतम ने कहा-हो सकता है। आनन्द बोला-भगवन् ! एक गृहस्थ की भूमिका में विद्यमान मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है, जिससे मैं पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पाँच-सौ, पाँच-सौ योजन तक का लवणसमुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में हिमवान-वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प-तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक-भूमि रत्न-प्रभा में लोलुपा-च्युत नामक नरक तक जानता हूँ, व्रता हूँ। तब भगवान गौतम ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा-गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, पर इतना विशाल नहीं । इसलिए आनन्द ! तुम इस स्थान की आलोचना करो, तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो । श्रमणोपासक आनन्द भगवान गौतम से बोला-भगवन् ! क्या जिन-शासन में सत्य, तथ्यसद्भूत भावों के लिए भी आलोचना स्वीकार करनी होती है ? गौतम ने कहा-ऐसा नहीं होता । आनन्द बोलाभगवन् ! जिनशासन में सत्य भावों के लिए आलोचना स्वीकार नहीं करनी होती तो भन्ते ! इस स्थान के लिए आप ही आलोचना स्वीकार करें।
श्रमणोपासक आनन्द के यों कहने पर भगवान गौतम के मन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा-उत्पन्न हुआ। वे आनन्द के पास से रवाना हुए । जहाँ दूतीपलाश चैत्य था, भगवान महावीर थे, वहाँ आए । श्रमण भगवान महावीर के न अधिक दूर, न अधिक नजदीक गमन-आगमन का प्रतिक्रमण किया, एषणीय-अनेषणीय की आलोचना की । आहारपानी भगवान को दिखलाकर वन्दन-नमस्कार कर वह सब कहा जो भगवान से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए जाने के पश्चात् घटित हुआ था । भगवन् ! उक्त स्थान के लिए क्या श्रमणोपासक आनन्द को आलोचना स्वीकार करनी चाहिए या मुझे? भगवान महावीर बोले-गौतम ! इस स्थान के लिए तुम ही आलोचना करो तथा इसके लिए श्रमणोपासक आनन्द से क्षमापना भी । भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर का कथन, 'आप ठीक फरमाते हैं', कहकर विनयपूर्वक सूना । उस स्थान के लिए आलोचना स्वीकार की एवं श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा-याचना की । तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए ।
सूत्र-१९
यों श्रमणोपासक आनन्द ने अनेकविध शीलव्रत यावत् आत्मा को भावित किया । बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय-पालन किया, ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का अनुसरण किया, एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन संपन्न कर, आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया । वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान-कोण में स्थित अरुण-विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम की होती है । श्रमणोपासक आनन्द की आयु-स्थिति भी चार पल्योपम की है । भन्ते ! आनन्द उस देवलोक से आयु, भव, एवं स्थिति के क्षय होने पर देवशरीर का त्याग कर कहाँ जाएगा? कहाँ उत्पन्न होगा? गौतम ! आनन्द महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा-सिद्ध-गति या मुक्ति प्राप्त करेगा।
अध्ययन-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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