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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक धर्मानुसारी, धर्मप्रिय, धर्म का कथन करने वाले, धर्म के अवलोकनकर्ता, धर्मासक्त, धर्माचरणी, और धर्म से ही अपनी आजीविका करने वाले जीव हैं, उन जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है, क्योंकि ये जीव जाग्रत हों तो बहुत से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख, शोक और परिताप देने में प्रवृत्त नहीं होते । ऐसे (धर्मिष्ठ) जीव जागृत रहते हुए स्वयं को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक धार्मिक संयोजनाओं में संयोजित करते रहते हैं । इसलिए इन जीवों का जागृत रहना अच्छा है । इसी कारण से, हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि कईं जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कई जीवों का जागृत रहना अच्छा है।
भगवन! जीवों की सबलता अच्छी है या दर्बलता? जयन्ती! कई जीवों की सबलता अच्छी है और कई जीवों की दुर्बलता अच्छी है । भगवन् ! जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक यावत् अधर्म से ही आजीविका करते हैं, उन जीवों की दुर्बलता अच्छी है । क्योंकि ये जीव दर्बल होने से किसी प्राण, भत, जीव और सत्त्व को दःख पहुँचा सकते, इत्यादि सुप्त के समान दुर्बलता का भी कथन करना । और जाग्रत के समान सबलता का कथन करना चाहिए । यावत् धार्मिक संयोजनाओं में संयोजित करते हैं, इसलिए इन जीवों की सबलता अच्छी है । हे जयन्ती! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि कईं जीवों की सबलता अच्छी है और कईं जीवों की निर्बलता।
भगवन् ! जीवों का दक्षत्व (उद्यमीपन) अच्छा है, या आलसीपन ? जयन्ती ! कुछ जीवों का दक्षत्व अच्छा है और कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक यावत् अधर्म द्वारा आजीविका करते हैं, उन जीवों का आलसीपन अच्छा है । यदि वे आलसी होंगे तो प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख, शोक और परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त नहीं होंगे, इत्यादि सब सुप्त के समान कहना तथा दक्षता का कथन जाग्रत के समान कहना, यावत् वे स्व, पर और उभय को धर्म के साथ संयोजित करने वाले होते हैं । ये जीव दक्ष हों तो आचार्य की वैयावृत्य, उपाध्याय की वैयावृत्य, स्थविरों की वैया-वृत्य, तपस्वीयों की वैयावृत्य, ग्लान की वैयावृत्य, शैक्ष की वैयावृत्य, कुलवैयावृत्य, गणवैयावृत्य, संघवैयावृत्य और साधर्मिकवैयावृत्य से अपने आपको संयोजित करने वाले होते हैं । हे जयन्ती ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि कुछ जीवों का दक्षत्व अच्छा है और कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है।
भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के वश-आर्त बना हुआ जीव क्या बाँधता है ? इत्यादि प्रश्न । जयन्ती! जिस प्रकार क्रोध के वश - आर्त बने हुए जीव के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यावत् वह संसार में बार-बार पर्यटन करता है, (यहाँ तक कहना) । इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय-वशार्त बने हुए जीव के विषय में भी कहना । इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय
जीव के विषय में कहना । तदनन्तर वह जयन्ती श्रमणोपासिका, श्रमण भगवान महावीर से यह अर्थ सूनकर एवं हृदय में अवधारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुई, इत्यादि शेष समस्त वर्णन देवानन्दा के समान है, यावत् जयन्ती श्रमणोपासिका प्रव्रजित हुई यावत् सर्व दुःखों से रहित हुई । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है
शतक-१२ - उद्देशक-३ सूत्र- ५३७
राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! पृथ्वीयाँ (नरकभूमियाँ) कितनी कही गई हैं ? गौतम ! पृथ्वीयाँ सात कही गई हैं, वे इस प्रकार है-प्रथमा, द्वीतिया यावत् सप्तमी । भगवन् ! प्रथमा पृथ्वी किस नाम और किस गोत्र वाली है ? गौतम ! प्रथमा पृथ्वी का नाम धम्मा है और गोत्र रत्नप्रभा । शेष वर्णन जीवाभिगम सूत्र के नैरयिक उद्देशक के समान यावत् अल्पबहत्व तक कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१२ - उद्देशक-४ सूत्र-५३८
राजगृह नगर में, यावत् गौतमस्वामी ने पूछा-भगवन् ! दो परमाणु जब संयुक्त होकर एकत्र होते हैं, तब उनका क्या होता है ? गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध बन जाता है । यदि उसका भेदन हो तो दो विभाग होने पर एक ओर एक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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