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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-५३५
उस काल उस समय में महावीर स्वामी (कौशाम्बी) पधारे, यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस समय उदायन राजा को जब यह पता लगा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! कौशाम्बी नगरी को भीतर और बाहर से शीघ्र ही साफ करवाओ; इत्यादि सब वर्णन कोणिक राजा के समान यावत् पर्युपासना करने लगा।
तदनन्तर वह जयन्ती श्रमणोपासिका भी इस समाचार को सूनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई और मृगावती के पास आकर इस प्रकार बोली-(इत्यादि आगे का सब कथन), नौवें शतक में ऋषभदत्त ब्राह्मण के प्रकरण के समान, यावत् (हमारे लिए इह भव, परभव और दोनों भवों के लिए कल्याणप्रद और श्रेयस्कर) होगा; तक जानना चाहिए। तत्पश्चात उस मगावती देवी ने भी जयन्ती श्रमणोपासिका के वचन उसी प्रकार स्वीकार किए, जिस प्रकार देवानन्दा ने (ऋषभदत्त के वचन) यावत स्वीकार किये थे । तत्पश्चात उस मगावती देवी ने कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! जिसमें वेगवान घोड़े जुते हए हों, ऐसा यावत् श्रेष्ठ धार्मिक रथ जोतकर शीघ्र ही उपस्थित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् रथ लाकर उपस्थित किया और यावत् उनकी आज्ञा वापिस सौंपी। - इसके बाद उस मृगावती देवी और जयन्ती श्रमणोपासिका ने स्नानादि किया यावत् शरीर को अलंकृत किया फिर कुब्जा दासियों के साथ वे दोनों अन्तःपुर से नीकलीं । फिर वे दोनों बाहरी उपस्थानशाला में आई और जहाँ धार्मिक श्रेष्ठ यान था, उसके पास आकर यावत् रथारूढ़ हुई। तब जयन्ती श्रमणोपासिका के साथ श्रेष्ठ धार्मिक यान पर आरूढ़ मृगावती देवी अपने परिवार सहित, यावत् धार्मिक श्रेष्ठ यान से नीचे ऊतरी, तक कहना चाहिए । तत्पश्चात् जयन्ती श्रमणोपासिका एवं बहुत-सी कुब्जा दासियों सहित मृगावती देवी श्रमण भगवान महावीर की सेवा में देवानन्दा के समान पहुँची, यावत् भगवान को वन्दना-नमस्कार किया और उदयन राजा को आगे करके समवसरण में बैठी और उसके पीछे स्थित होकर पर्युपासना करने लगी।
तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उदयन राजा, मृगावती देवी, जयन्ती श्रमणोपासिका और उस महत्ती महापरीषद को यावत् धर्मोपदेश दिया, यावत् परीषद लौट गई, उदयन राजा और मृगावती रानी भी चले गए। सूत्र- ५३६
वह जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई । फिर भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके पूछा-भगवन् ! जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? जयन्ती ! जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं, (इत्यादि) प्रथम शतक अनुसार, यावत् संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं।
भगवन् ! जीवों का भवसिद्धिकत्व स्वाभाविक है या पारिणामिक है ? जयन्ती ! वह स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं । भगवन् ! क्या सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएंगे ? हाँ, जयन्ती ! हो जाएंगे । भगवन् ! यदि भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएंगे, तो क्या लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित हो जाएगा ? जयन्ती ! यह अर्थ शक्य नहीं है । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? जयन्ती ! जिस प्रकार कोई सर्वाकाश श्रेणी हो, जो अनादि, अनन्त हो, परित्त और परिवृत हो, उसमें से प्रतिसमय एक-एक परमाणु-पुद्गल जितना खण्ड निकालते-निकालते अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी तक निकाला जाए तो भी वह श्रेणी खाली नहीं होती । इसी प्रकार, हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे, किन्त लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा।
भगवन् ! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है या जागृत रहना अच्छा? जयन्ती! कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है । भगवन् ! ऐसा किस कारण कहते हैं ? जयन्ती ! जो ये अधार्मिक, अधर्मानुसरणकर्ता, अधर्मिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले, अधर्मावलोकनकर्ता, अधर्म में आसक्त, अधर्माचरणकर्ता और अधर्म से ही आजीविका करने वाले जीव हैं, उन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है, क्योंकि वे जीव सुप्त रहते हैं, तो अनेक प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख, शोक और परिताप देने में प्रवृत्त नहीं होते । ये जीव सोये रहते हैं तो अपने को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक अधार्मिक संयोजनाओं में नहीं फँसाते । जयन्ती ! जो ये धार्मिक हैं, मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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