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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक जब गंगदत्त गाथापति ने भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के पदार्पण की बात सूनी तो वह अतीव हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने स्नान और बलिकर्म किया, यावत् शरीर को अलंकृत करके वह अपने घर से नीकला और पैदल चलकर हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ सहस्राम्रवन उद्यान में अर्हन्त भगवान मुनिसुव्रत स्वामी विराजमान थे, वहाँ पहुँचा । तीर्थंकर मुनिसुव्रत प्रभु को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना विधि से पर्युपासना करने लगा । अर्हन्त मुनिसुव्रत स्वामी ने गंगदत्त गाथापति को और महती परीषद्को धर्मकथा कही । यावत् परीषद् लौट गई । तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सूनकर और अवधारण करके गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट होकर खड़ा हुआ और भगवान को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला- भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् आपने जो कुछ कहा, उस पर श्रद्धा करता हूँ । देवानुप्रिय ! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को कटम्ब का भार सौंप दँगा, फिर आप देवानप्रिय के समीप मण्डित यावत प्रव्रजित होना चाहता हूँ। हे देवानप्रिय ! जिस प्रकार तम्हें सख हो, वैसा करो; परन्त धर्मकार्य में विलम्ब मत करो। अर्हत मनिसव्रत स्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वह गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट हआ सहस्राम्रवन उद्यान से नीकला, और हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था, वहाँ आया । घर आकर उसने विपुल अशन-पान यावत् तैयार करवाया । फिर अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन आदि को आमंत्रित किया । फिर पूरण सेठ के समान अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब (-कार्य) में स्थापित किया।
तत्पश्चात् अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन आदि तथा ज्येष्ठ पुत्र से अनुमति लेकर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिबिका पर चढ़ा और अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार एवं ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुगमन किया जाता हुआ, सर्वऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों के आघोषपूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर सहस्राम्रवन उद्यान के निकट आया छत्र आदि तीर्थंकर भगवान के अतिशय देखकर यावत् उदायन राजा के समान यावत् स्वयमेव आभूषण उतारे; फिर स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया । इसके पश्चात् तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के पास जाकर उदायन राजा के समान प्रव्रज्या ग्रहण की, यावत् उसी के समान (गंगदत्त अनगार ने) ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् एक मास की संलेखना से साठ-भक्त अनशन का छेदन किया और फिर आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त होकर काल के अवसर में काल करके महाशुक्रकल्प में महासामान्य नामक विमान की उपपात-सभा की देवशय्या में यावत् गंगदत्त देव के रूप में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् तत्काल उत्पन्न वह गंगदत्त देव पंचविध पर्याप्तियों से पर्याप्त बना । यथा-आहारपर्याप्ति यावत् भाषा-मनःपर्याप्ति । इस प्रकार हे गौतम ! गंगदत्त देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि यावत् पूर्वोक्त प्रकार से उपलब्ध, प्राप्त यावत् अभिमुख की है।
शतक-१६ - उद्देशक-६ सूत्र-६७७
भगवन् ! स्वप्न-दर्शन कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पाँच प्रकार का । यथा-यथातथ्य-स्वप्नदर्शन प्रतान-स्वप्नदर्शन, चिन्ता-स्वप्नदर्शन, तविपरीत-स्वप्नदर्शन और अव्यक्त-स्वप्नदर्शन । भगवन् ! सोता हुआ प्राणी स्वप्न देखता है, जागता हुआ देखता है, अथवा सुप्तजागृत प्राणी स्वप्न देखता है ? गौतम ! सोता हुआ प्राणी स्वप्न नहीं देखता, और न जागता हुआ प्राणी स्वप्न देखता है, किन्तु सुप्त-जागृत प्राणी स्वप्न देखता है।
__ भगवन् ! जीव सुप्त है, जागृत है अथवा सुप्त-जागृत है ? गौतम ! जीव सुप्त भी है, जागृत भी है और सुप्तजागृत भी है । भगवन् ! नैरयिक सुप्त हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । गौतम ! नैरयिक सुप्त हैं, जागृत नहीं हैं और न वे सुप्तजागृत हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक कहना । भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव सुप्त हैं, इत्यादि प्रश्न । गौतम ! वे सुप्त है, जागृत नहीं है, सुप्त-जागृत भी हैं । मनुष्यों के सम्बन्ध में सामान्य जीवों के समान (तीनों) जानना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों के समान (सुप्त) जानना चाहिए। सूत्र - ६७८
भगवन् ! संवृत्त जीव स्वप्न देखता है, असंवृत्त जीव स्वप्न देखता है अथवा संवृता-संवृत्त जीव स्वप्न देखता है? गौतम ! तीनों ही । संवृत्त जीव जो स्वप्न देखता है, वह यथातथ्य देखता है । असंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह सत्य
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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