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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक उल्लूकतीर नामक नगर के बाहर एकजम्बूक नाम के उद्यान में श्रमण भगवान महावीर यथायोग्य अवग्रह लेकर विचरते हैं । अतः मुझे श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार यावत् पर्युपासना करके यह तथारूप प्रश्न पूछना श्रेयस्कर है । ऐसा विचार कर चार हजार सामानिक देवों के परिवार के साथ सूर्याभ देव के समान, यावत् निर्घोषनिनादित ध्वनिपूर्वक, जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में उल्लूकतीर नगर के एकजम्बूक उद्यान में मेरे पास आने के लिए उसने प्रस्थान किया । उस समय उस देव की तथाविध दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव और दिव्य तेजःप्रभा को सहन नहीं करता हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र मुझसे संक्षेप में आठ प्रश्न पूछकर शीघ्र ही वन्दना-नमस्कार करके यावत् चला गया। सूत्र-६७५
जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी भगवान गौतम स्वामी से यह बात कह रहे थे, इतने में ही वह देव शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा । उस देव ने आते ही श्रमण भगवान महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार किया
और पूछा-भगवन् ! महाशुक्र कल्प में महासामान्य विमान में उत्पन्न हुए एक मायीमिथ्यादृष्टि देव ने मुझे इस प्रकार कहा-परिणमते हुए पुद्गल अभी परिणत नहीं कहे जाकर अपरिणत कहे जाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत रहे हैं । इसलिए वे परिणत नहीं, अपरिणत ही कहे जाते हैं । तब मैंने उस मायीमिथ्यादृष्टि देव से इस प्रकार कहापरिणमते हए पुद्गल परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे पुद्गल परिणत हो रहे हैं, इसलिए परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं। भगवन् ! इस प्रकार का मेरा कथन कैसा है ? श्रमण भगवान महावीर ने गंगदत्त देव को इस प्रकार कहा- गंगदत्त ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि परिणमते हुए पुद्गल यावत् अपरिणत नहीं, परिणत हैं । यह अर्थ सत्य है।
तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी से यह उत्तर सूनकर और अवधारण करके वह गंगदत्त देव हर्षित और सन्तुष्ट हआ । उसने भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । फिर वह न अति दूर और न अति निकट बैठकर यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगा । तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने गंगदत्त देव को ओर महती परीषद् को धर्मकथा कही, यावत्-जिसे सूनकर जीव आराधक बनता है । उस समय गंगदत्त देव श्रमण भगवान महावीर से धर्मदेशना सूनकर और अवधारण करके हुष्ट-तुष्ट हुआ और फिर उसने खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा- भगवन् ! मैं गंगदत्त देव भवसिद्धिक हूँ या अभवसिद्धिक ? हे गंगदत्त ! सूर्याभदेव के समान (समझना ।) फिर गंगदत्त देव ने भी सूर्याभदेववत् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि प्रदर्शित की और फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। सूत्र - ६७६
भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् पूछा- भगवन् ! गंगदत्त देव की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति यावत् कहाँ गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ?' गौतम ! यावत् उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हो गई । यहाँ कूटाकारशाला का दृष्टान्त, यावत् वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई, (तक समझना चाहिए ।) (गौतम-) अहो ! भगवन् ! गंगदत्त देव महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न है!
भगवन् ! गंगदत्त देव को वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति कैसे उपलब्ध हुई ? यावत् जिससे गंगदत्त देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि उपलब्ध, प्राप्त और यावत् अभिसमन्वागत की ? श्रमण भगवान महावीर ने कहा- गौतम ! बात ऐसी है कि उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में हस्तिनापुर नामका नगर था । वहाँ सहस्रा-म्रवन नामक उद्यान था । उस हस्तिनापुर नगर में गंगदत्त गाथापति रहता था । वह आढ्य यावत् अपराभूत था । उस काल उस समय में धर्म कि आदि करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी आकाशगत चक्रसहित यावत् देवों द्वारा खींचे जाते हुए धर्मध्वजयुक्त, शिष्यगण से संपरिवृत्त होकर अनुक्रम से विचरते हुए और ग्रामानुग्राम जाते हुए, यावत् मुनिसुव्रत अर्हन्त यावत् सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे, यावत् यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके विचरने लगे । परीषद् वन्दना करने के लिए आई यावत् पर्युपासना करने लगी।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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