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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
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शतक/ वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक महापर्यवसान वाले नहीं होते। जिस प्रकार कोई पुरुष तरुण है, बलवान है, यावत् मेधावी, निपुण और शिल्पकार है, वह एक बड़े शाल्मली वृक्ष की गीली, अजटिल, अगंठित, चिकनाई से रहित, सीधी और आधार पर टिकी गण्डिका पर तीक्ष्ण कुल्हाड़े से प्रहार करे तो जोर-जोर से शब्द किये बिना ही आसानी से उसके बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है । इसी प्रकार हे गौतम ! जिन श्रमण निर्ग्रन्थों ने अपने कर्म यथा-स्थूल, शिथिल यावत् निष्ठित किये हैं, यावत् वे कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । और वे श्रमण निर्ग्रन्थ यावत् महापर्यवसान वाले होते हैं । हे गौतम! जैसे कोई पुरुष सूखे हुए घास के पूले को यावत् अग्नि में डाले तो वह शीघ्र ही जल जाता है, इसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । जैसे कोई पुरुष, पानी की बूँद को तपाये हुए लोहे के कड़ाह पर डाले तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के भी यथाबादर कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। छठे शतक के अनुसार यावत् वे महापर्यवसान वाले होते हैं । इसीलिए हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है, इत्यादि, यावत् उतने कर्मों का नैरयिक जीव कोटाकोटी वर्षों में भी क्षय नहीं कर पाते । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक-१६ - उद्देशक- ५
सूत्र - ६७३
उस काल उस समय में उल्लूकतीर नामक नगर था । वहाँ एकजम्बूक नामका उद्यान था । उसका वर्णन पूर्ववत् । उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर वहाँ पधारे, यावत् परीषद् ने पर्युपासना की । उस काल उ समय में देवेन्द्र देवराज वज्रपाणि शक्र इत्यादि सोलहवे शतक के द्वीतिय उद्देशक में कथित वर्णन के अनुसार दिव्य यान विमान से वहाँ आया और श्रमण भगवान महावीर को वन्दना - नमस्कार कर उसने इस प्रकार पूछा
भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना यहाँ आने में समर्थ हैं ? हे शक्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं । भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके यहाँ आने में समर्थ हैं ? भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव क्या बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके गमन करने, बोलने या उत्तर देने या आँखे खोलने और बन्द करने, या शरीर के अवयवों को सिकोड़ने और पसारने में, या स्थान, शय्या, निषद्या को भोगने में, तथा विक्रिया करने या परिचारणा (विषयभोग) करने में समर्थ है ? हाँ, शक्र ! वह गमन यावत् परिचारणा करने में समर्थ है । देवेन्द्र देवराज शक्र ने इन उत्क्षिप्त आठ प्रश्नों के उत्तर पूछे, और फिर भगवान को उत्सुकतापूर्वक वन्दन करके उसी दिव्य यान विमान पर चढ़कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया । सूत्र ६७४
भगवन् ! गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार करके पूछा भगवन्! अन्य दिनों में देवेन्द्र देवराज शक्र (आता है, तब आप देवानुप्रिय को वन्दन- नमस्कार करता है, आपका सत्कार सन्मान करता है, यावत् आपकी पर्युपासना करता है; किन्तु भगवन्। आज तो देवेन्द्र देवराज शक्र आप देवानुप्रिय से संक्षेप में आठ प्रश्नों के उत्तर पूछकर और उत्सुकतापूर्वक वन्दन- नमस्कार करके शीघ्र ही चला गया, इसका क्या कारण है ? श्रमण भगवान महावीर ने कहा- गौतम! उस काल उस समय में महाशुक्र कल्प के महासामान्य नामक विमान में महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न दो देव, एक ही विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। उनमें से एक मायीमिथ्यादृष्टि उत्पन्न हुआ और दूसरा अमायीसम्यग्दृष्टि उत्पन्न हुआ। एक दिन उस मायीमिथ्यादृष्टि देव ने अमायीसम्यग्दृष्टि देव से कहा- परिणमते हुए पुद् गल परिणत नहीं कहलाते अपरिणत कहलाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं, इसलिए वे परिणत नहीं, अपरिणत हैं।
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इस पर अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने मायीमिथ्यादृष्टि देव से कहा- परिणमते हुए पुद्गल परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे परिणत हो रहे हैं, इसलिए ऐसे पुद्गल परिणत हैं अपरिणत नहीं । इस प्रकार कहकर अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने मायीमिथ्यादृष्टि देव को पराजित किया । पश्चात् अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने अवधिज्ञान उपयोग लगाकर अवधिज्ञान से मुझे देखा, फिर उसे ऐसा यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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