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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? गौतम ! आठ कर्मप्रकृतियों को वेदता है । यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के वेद-वेद नामक पद में कथित समग्र कथन करना चाहिए । वेदबन्ध, बन्ध-वेद और बन्ध-बन्ध उद्देशक भी, यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। सूत्र-६७१
किसी समय एक दिन श्रमण भगवान महावीर राजगृहनगर के गुणशीलक नामक उद्यान से नीकले और बाहर के (अन्य) जनपदों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में उल्लूकतीर नामका नगर था । (वर्णन) उस उल्लूकतीर नगर के बाहर ईशानकोण में एकजम्बुक उद्यान था । एक बार किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरण करते हुए यावत् एकजम्बूक उद्यान में पधारे । यावत् परीषद् लौट गई।
गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और पछा-भगवन ! निरन्तर छठ-छठ के तपश्चरण के साथ यावत् आतापना लेते हुए भावितात्मा अनगार को दिवस के पूर्वार्द्ध में अपने हाथ, पैर, बांह या उरु को सिकोड़ना या पसारना कल्पनीय नहीं है, किन्तु दिवस के पश्चिमार्द्ध में अपने हाथ, पैर या यावत् उरु को सिकोड़ना या फैलाना कल्पनीय है । इस प्रकार कायोत्सर्गस्थित उस भावितात्मा अनगार की नासिका में अर्श लटक रहा हो, उस अर्श को किसी वैद्य ने देखा और यदि वह वैद्य उस अर्श को काटने के लिए उस ऋषि को भूमि पर लैटाए, फिर उसके अर्श को काटे; तो हे भगवन् ! क्या जो वैद्य अर्श को काटता है, उसे क्रिया लगती है ? तथा जिस (अनगार) का अर्श काटा जा रहा है, उसे एकमात्र धर्मान्तरायिक क्रिया के सिवाय दूसरी क्रिया तो नहीं लगती? हाँ, गौतम! ऐसा ही है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१६ - उद्देशक-४ सूत्र-६७२
राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव एक वर्ष में, अनेक वर्षों में अथवा सौ वर्षों में क्षय कर देते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं।
भगवन् ! चतुर्थ भक्त करने वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों से नैरयिक जीव सौ वर्षों में, अनेक सौ वर्षों में या एक हजार वर्षों में खपाते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । भगवन् ! षष्ठभक्त करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव एक हजार वर्षों में, अनेक हजार वर्षों में, अथवा एक लाख वर्षों में क्षय कर पाता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। भगवन् ! अष्टमभक्त करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव एक लाख वर्षों में, अनेक लाख वर्षों में या एक करोड़ वर्षों में क्षय कर पाता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। भगवन् ! दशमभक्त करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव, एक करोड़ वर्षों में, अनेक करोड़ वर्षों में या कोटाकोटी वर्षों में क्षय कर पाता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई वृद्ध पुरुष है । वृद्धावस्था के कारण उसका शरीर जर्जरित हो गया है । चमड़ी शिथिल होने से सिकुड़कर सलवटों से व्याप्त है । दाँतों की पंक्ति में बहुत-से दाँत गिर जाने से थोड़े-से दाँत रह गए हैं, जो गर्मी से व्याकुल है, प्यास से पीड़ित है, जो आतुर, भूखा, प्यासा, दुर्बल और क्लान्त है। वह वृद्ध पुरुष एक बड़ी कोशम्बवृक्ष की सूखी, टेढ़ी, मेढ़ी, गाँठ-गठीली, चिकनी, बांकी, निराधार रही हुई गण्डिका पर एक कुण्ठित कुल्हाड़े से जोर-जोर से शब्द करता हुआ प्रहार करे, तो भी वह उस लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़े नहीं कर सकता, इसी प्रकार हे गौतम ! नैरयिक जीवों ने अपने पापकर्म गाढ़ किए हैं, चिकने किए हैं, इत्यादि छठे शतक के अनुसार यावत्-वे महापर्यवसान वाले नहीं होते।
जिस प्रकार कोई पुरुष एहरन पर घन की चोट मारता हुआ, जोर-जोर से शब्द करता हुआ, (एहरन के स्थूल पुद्गलों को तोड़ने में समर्थ नहीं होता, इसी प्रकार नैरयिक जीव भी गाढ़ कर्म वाले होते हैं, इसलिए वे यावत्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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