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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक / वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक महावीर को देख रहा था । यहाँ तृतीय शतक में कथित ईशानेन्द्र की वक्तव्यता के समान शक्रेन्द्र कहना । विशेष यह है कि शक्रेन्द्र आभियोगिक देवों को नहीं बुलाता । इसकी पैदल सेना का अधिपति हरिणैगमेषी देव है, (जो) सुघोषा घंटा (बजाता है। विमाननिर्माता पालक देव हैं। इसके नीकलने का मार्ग उत्तरदिशा है। अग्नि कोण में रतिकर पर्वत है। शेष सभी वर्णन उसी प्रकार यावत् शक्रेन्द्र भगवान के निकट उपस्थित हुआ और अपना नाम बतलाकर भगवान की पर्युपासना करने लगा (भगवान ने धर्मकथा कही; यावत् परीषद् वापिस लौट गई।
तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र श्रमण भगवान महावीर से धर्म श्रवण कर एवं अवधारण करके अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ। उसने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार प्रश्न पूछा भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? हे शक्र ! पाँच प्रकार का, यथा- देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गाथापति अवग्रह, सागारिकावग्रह और साधर्मिकाऽवग्रह भगवन्। आजकल जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ विचरण करते हैं, उन्हें में अवग्रह की अनुज्ञा देता हूँ यों कहकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार करके शक्रेन्द्र, उसी दिव्य यान विमान पर चढ़ा और फिर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया। भगवन्! इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार पूछा भगवन् देवेन्द्र देवराज शक्र ने आपसे पूर्वोक्त रूप से अवग्रह सम्बन्धी जो अर्थ कहा, क्या वह सत्य है ? हाँ, गौतम । वह अर्थ सत्य है।
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सूत्र - ६६८
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भगवन्! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र सम्यग्वादी है अथवा मिथ्यावादी है? गौतम वह सम्यग्वादी है, मिथ्यावादी नहीं है । भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र क्या सत्य भाषा बोलता है, मृषा बोलता है, सत्यामृषा भाषा बोलता है, अथवा असत्यामृषा भाषा बोलता है ? गौतम वह सत्य भाषा भी बोलता है, यावत् असत्यामृषा भाषा भी बोलता है। भगवन् । देवेन्द्र देवराज शक्र क्या सावद्य भाषा बोलता है या निरवद्य भाषा बोलता है ? गौतम वह सावद्य भाषा भी बोलता है और निरवद्य भाषा भी बोलता है । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया है ? गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र सूक्ष्म काय से मुख ढँके बिना बोलता है, तब वह सावद्य भाषा बोलता है और जब वह मुख को ढँक कर बोलता है, तब वह निरवद्य भाषा बोलता है। इसी कारण से यह कहा जाता है ।
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शन भवसिद्धिक हे या अभवसिद्धिक है ? सम्यग्दृष्टि है या मिध्यादृष्टि है ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! तृतीय शतक के प्रथम मोका उद्देशक में उक्त सनत्कुमार के अनुसार यहाँ भी अचरम नहीं है तक कहना सूत्र - ६६९
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भगवन् ! जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं या अचेतनकृत होते हैं ? गौतम ! जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं, अचेतनकृत नहीं होते हैं। भगवन् ऐसा क्यों कहा जाता है? गौतम जीवों के आहार रूप से उपचित जो पुद्गल हैं. शरीररूप से जो संचित पुद्गल हैं और कलेवर रूप से जो उपचित पुद्गल हैं, वे तथा तथा रूप से परिणत होते हैं, इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणों! कर्म अचेतनकृत नहीं है । वे पुद्गल दुःस्थान रूप से, दुःशय्या रूप से और दुर्निषद्या रूप से तथा-तथा रूप से परिणत होते हैं । इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणों ! कर्म अचेतनकृत नहीं है । वे पुद्गल आतंक रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं; वे संकल्प रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं, वे पुद्गल मरणान्त रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं । इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणों ! कर्म अचेतनकृत नहीं है । हे गौतम! इसीलिए कहा जाता है, यावत् कर्म चेतनकृत होते हैं। इसी प्रकार नैरयिकों के कर्म भी चेतनकृत होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक के कर्मों के विषय में कहना चाहिए । हे भगवन्! यह इसी प्रकार है. भगवन् यह इसी प्रकार है।
शतक-१६ उद्देशक- ३
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सूत्र - ६७०
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राजगृह नगर में (गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा- भगवन्! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम आठ हैं, यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । इस प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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