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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक
शतक-१६ सूत्र-६६०
सोलहवें शतक में चौदह उद्देशक हैं । यथा-अधिकरणी, जरा, कर्म, यावतीय, गंगदत्त, स्वप्न, उपयोग, लोक, बलि, अवधि, द्वीप, उदधि, दिशा और स्तनित ।
शतक-१६ - उद्देशक-१ सूत्र-६६१
उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-भगवन्! क्या अधिकरणीय पर (हथौड़ा मारते समय) वायुकाय उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! होता है। भगवन् ! उस (वायुकाय) का स्पर्श होने पर वह मरता है या बिना स्पर्श हुए मर जाता है ? गौतम ! उसका दूसरे पदार्थ के साथ स्पर्श होने पर ही वह मरता है, बिना स्पर्श हुए नहीं मरता। भगवन् ! वह (मृत वायुकाय) शरीरसहित (भवान्तरमें) जाता है या शरीररहित है ? गौतम ! इस विषय में स्कन्दक-प्रकरण के अनुसार, यावत्-शरीर-रहित हो कर नहीं जाता; (तक) जानना चाहिए। सूत्र -६६२
भगवन् ! अंगारकारिकामें अग्निकाय कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन रात-दिन तक, वहाँ अन्य वायुकायिक जीव भी उत्पन्न होते हैं; क्योंकि वायुकाय बिना अग्निकाय प्रज्वलित नहीं होता सूत्र-६६३
भगवन् ! लोहा तपाने की भट्ठी में तपे हुए लोहे का लोहे की संडासी से ऊंचा-नीचा करने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! जब तक वह पुरुष लोहा तपाने की भट्टी में लोहे की संडासी से लोहे को ऊंचा या नीचा करता है, तब तक वह पुरुष कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी क्रिया तक पाँचों क्रियाओं से स्पष्ट होता है तथा जिन जीवों के शरीर से लोहा बना है, लोहे की भट्टी बनी है, संडासी बनी है, अंगारे बने हैं, अंगारे नीकालने की लोहे की छडी बनी है और धमण बनी है, वे सभी जीव भी कायिकी से लेकर यावत प्राणातिपातिकी तक पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं।
भगवन् ! लोहे की भट्ठी में से, लोहे को, लोहे की संडासी से पकड़कर एहरन पर रखते और उठाते हुए पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! जब तक लोहा तपाने की भट्ठीमें से लोहे को संडासी से पकड़कर यावत् रखता है, तब तक वह पुरुष कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी तक पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से लोहा बना है, संडासी बनी है, घन बना है, हथौड़ा बना है, एहरन बनी है, एहरन का लकड़ा बना है, गर्म लोहे को ठंड़े करने की उदकद्रोणी बनी है, तथा अधिकरणशाला बनी है, वे जीव भी कायिकी आदि पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं सूत्र-६६४
भगवन् ! जीव अधिकरणी है या अधिकरण है ? गौतम ! जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है । भगवन् ! किस कारण से यह कहा जाता है ? गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है । भगवन् ! नैरयिक जीव अधिकरणी हैं या अधिकरण हैं ? गौतम ! वह अधिकरणी भी हैं और अधिकरण भी हैं। (सामान्य) के अनुसार नैरयिक के विषय में भी जानना चाहिए । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना।
भगवन् ! जीव साधिकरणी है या निरधिकरणी है ? गौतम ! जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं है। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा है ? गौतम! अविरति की अपेक्षा जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं है। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना।
भगवन ! जीव आत्माधिकरणी है, पराधिकरणी है, या उभयाधिकरणी है ? गौतम ! जीव आत्माधिकरणी भी हैं, पराधिकरणी भी हैं और तभयाधिकरणी भी हैं। भगवन ! ऐसा किस हेतु से कहा गया है? अविरति की अपेक्षा । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना।
भगवन् ! जीवों का अधिकरण आत्मप्रयोग से होता है, परप्रयोग से निष्पन्न होता है अथवा तदुभवप्रयोग से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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