________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक / वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक
है । वहाँ गोशालक की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है ।
I
भगवन् ! वह गोशालक देव उस देवलोक से आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर, देवलोक से च्यव कर यावत् कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में विन्ध्यपर्वत के पादमूल में, पुण्ड्र जनपद के शतद्वार नामक नगर में सन्मूर्ति नाम के राजा की भद्रा-भार्या की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा । वह वहाँ नौ महीने और साढ़े सात रात्रिदिवस यावत् भलीभाँति व्यतीत होने पर यावत् सुन्दर बालक के रूप में जन्म लेगा । जिस रात्रि में उस बालक का जन्म होगा, उस रात्रि में शतद्वार नगर के भीतर और बाहर अनेक भार प्रमाण और अनेक कुम्भप्रमाण पद्मों एवं रत्नों की वर्षा होगी। तब उस बालक के माता-पिता ग्यारह दिन बीत जाने पर बारहवे दिन उस बालक का गुणयुक्त एवं गुणनिष्पन्न नामकरण करेंगे - क्योंकि हमारे इस बालक का जब जन्म हुआ, तब पद्मों और रत्नों की वर्षा हुई थी, इसलिए हमारे इस बालक का नाम- महापद्म हो । तत्पश्चात् उस महापद्म बालक के माता-पिता उसे कुछ अधिक आठ वर्ष का जानकर शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त्त में बहुत बड़े राज्याभिषेक से अभिषिक्त करेंगे। इस प्रकार वह वहाँ का राजा बन जाएगा। वह महाहिमवान् आदि पर्वत के समान महान एवं बलशाली होगा, यावत् वह (राज्यभोग करता हुआ) विचरेगा । किसी समय दो महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव उस महापद्म राजा का सेनापतित्व करेंगे। वे दो देव इस प्रकार हैं- पूर्णभद्र और माणिभद्र। यह देखकर शतद्वार नगर के बहुत-से राजेश्वर, तलवर, राजा, युवराज यावत् सार्थवाह आदि परस्पर एक दूसरे को बुलायेंगे और कहेंगे-देवानुप्रियो ! हमारे महापद्म राजा के महर्द्धिक यावत् महासौख्यशाली दो देव सेनाकर्म करते हैं। इसलिए देवानुप्रियो ! हमारे महापद्म राजा का दूसरा नाम देवसेन हो ।
I
तदनन्तर किसी दिन उस देवसेन राजा के शंखतल के समान निर्मल एवं श्वेत चार दाँतों वाला हस्तिरत्न समुत्पन्न होगा । तब वह देवसेन राजा उस शंखतल के समान श्वेत एवं निर्मल चार दाँत वाले हस्तिरत्न पर आरूढ़ होकर शतद्वार नगर के मध्य में होकर बार-बार बाहर जाएगा और आएगा । यह देखकर बहुत से राजेश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति परस्पर एक दूसरे को बुलाएंगे और फिर इस प्रकार कहेंगे- देवानुप्रियो हमारे देवसेन राजा के यहाँ शंखतल के समान श्वेत, निर्मल एवं चार दाँतों वाला हस्तिरत्न समुत्पन्न हुआ है, अतः हे देवानुप्रियो ! हमारे देवसेन राजा का तीसरा नाम विमलवाहन भी हो । किसी दिन विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्या-भिमान को अपना लेगा । वह कईं श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश करेगा, किन्हीं का उपहास करेगा, कतिपय साधुओं को एक दूसरे से पृथक्-पृथक् कर देगा, कईयों की भर्त्सना करेगा, बांधेगा, निरोध करेगा, अंगच्छेदन करेगा, मारेगा, उपद्रव करेगा, श्रमणों के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रोंछन को छिन्नभिन्न कर देगा, नष्ट कर देगा, चीर-फाड़ देगा या अपहरण कर लेगा। आहार पानी का विच्छेद करेगा और कई श्रमणों को नगर और देश से निर्वासित करेगा । शतद्वारनगर के बहुत से राजा, ऐश्वर्यशाली यावत् सार्थवाह आदि परस्पर यावत् कहने लगेंगे- देवानुप्रियो । विमलवाहन राजा ने श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यपन अपना लिया है, यावत् कितने ही श्रमणों को इसने देश से निर्वासित कर दिया है, इत्यादि । अतः देवानुप्रियो यह हमारे लिए श्रेयस्कर नहीं है। यह न विमल वाहन राजा के लिए श्रेयस्कर है और न राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, पुर अन्तःपुर अथवा जनपद के लिए श्रेयस्कर है कि विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व को अंगीकार करे । अतः देवानुप्रियो ! हमारे लिए यह उचित है कि हम विमलवाहन राजा को इस विषय में विनयपूर्वक निवेदन करें। इस प्रकार वे विमलवाहन राजा के पास आएंगे। करबद्ध होकर विमलवाहन राजा को जय-विजय शब्दों से बधाई देंगे। फिर कहेंगे- हे देवानुप्रिय ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति आपने अनार्यत्व अपनाया है; कईयों पर आप आक्रोश करते हैं, यावत् कईं श्रमणों को आप देश - निर्वासित करते
। अतः हे देवानुप्रिय यह आपके लिए श्रेयस्कर नहीं है, न हमारे लिए यह श्रेयस्कर हे यावत् आप देवानुप्रिय श्रमणनिर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व स्वीकार करें। अतः हे देवानुप्रिय आप इस अकार्य को करने से रुकें। तदनन्तर इस प्रकार जब वे राजेश्वर यावत् सार्थवाह आदि विनयपूर्वक राजा विमलवाहन से बिनती करेंगे, तब वह राजा - धर्म (कुछ) नहीं, तप निरर्थक है, इस प्रकार की बुद्धि होते हुए भी मिथ्या - विनय बताकर उनकी इस बिनती को मान लेगा । उस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
Page 77