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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक श्रमण भगवान महावीर से आदेश पाकर सिंह अनगार हर्षित सन्तुष्ट यावत् हृदय में प्रफुल्लित हुए और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, फिर त्वरा, चपलता और उतावली से रहित होकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया । गौतमस्वामी की तरह भगवान महावीर स्वामी के पास आए, वन्दन-नमस्कार करके शालकोष्ठक उद्यान से नीकले। फिर यावत् मेंढिकग्राम नगर के मध्य भाग में होकर रेवती गाथापत्नी के घर में प्रवेश किया तदनन्तर रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार को ज्यों ही आते देखा, त्यों ही हर्षित एवं सन्तुष्ट होकर शीघ्र अपने आसन से उठी। सिंह अनगार के समक्ष सात-आठ कदम गई और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार कर बोली-देवानुप्रिय ! कहिए, किस प्रयोजन से आपका पधारना हुआ ?' तब सिंह अनगार ने रेवती गाथापत्नी से कहा-हे देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान महावीर के लिए तुमने जो कोहले के दो फल संस्कारित करके तैयार किए हैं, उनसे प्रयोजन नहीं है, किन्तु मार्जार नामक वायु को शान्त करने वाला बिजौरापाक, जो कल का बनाया हुआ है, वह मुझे दो, उसी से प्रयोजन है। इस पर रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार से कहा-हे सिंह अनगार ! ऐसे कौन ज्ञानी अथवा तपस्वी हैं, जिन्होंने मेरे अन्तर की यह रहस्यमय बात जान ली और आप से कह दी, जिससे की आप यह जानते हैं ? सिंह अनगार ने (कहा-) यावत्-भगवान के कहने से मैं जानता हूँ।
तब सिंह अनगार से यह बात सुनकर एवं अवधारण करके वह रेवती गाथापत्नी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई । रसोईघर गई और बर्तन को लेकर सिंह अनगार के पास आई और सारा पाक सम्यक् प्रकार से डाल दिया । रेवती गाथापत्नी ने उस द्रव्यशुद्धि, दाता की शुद्धि एवं पात्र की शुद्धि से युक्त, यावत् प्रशस्त भावों से दिए गए दान से सिंह अनगार को प्रतिलाभित करने से देवायु का बन्ध किया यावत् रेवती गाथापत्नी ने जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त किया, रेवती गाथापत्नी ने जन्म और जीवन सफल कर लिया। इसक पश्चात् वे सिंह अनगार, रेवती गाथापत्नी के घर से नीकले और मेंढिकग्राम नगर के मध्य में से होते हुए भगवान के पास पहुंचे और गौतम स्वामी के समान यावत् आहार-पानी दिखाया । श्रमण भगवान महावीर स्वामी के हाथ में सम्यक् प्रकार से रख (दे) दिया।
तब भगवान महावीरने अमूर्छित यावत् लालसारहित बिलमें सर्प-प्रवेश समान उस आहार को शरीर रूपी कोठेमें डाल दिया । आहार करने के बाद महापीड़ाकारी रोगांतक शीघ्र शान्त हो गया। वे हृष्ट-पुष्ट, रोगरहित, शरीर से बलिष्ठ हो गए। इससे सभी श्रमण तुष्ट हुए, श्रमणियाँ तुष्ट हुईं, श्रावक तुष्ट हुए, श्राविकाएं तुष्ट हुईं, देव तुष्ट हुए, देवियाँ तुष्ट हुईं, देव-मनुष्य-असुरों सहित समग्र लोक तुष्ट एवं हर्षित हो गया । (कहने लगे-) श्रमण भगवान महावीर हृष्ट हुए सूत्र - ६५६
गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके पछा- भगवन ! देवानप्रिय का अन्तेवासी पूर्वदेश में उत्पन्न सर्वानुभूति नामक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, और जिसे मंखलिपुत्र गोशालक ने अपने तप-तेज से भस्म कर दिया था, वह मरकर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? हे गौतम! वह ऊपर चन्द्र
और सूर्य का यावत् ब्रह्मलोक, लान्तक और महाशुक्र कल्प का अतिक्रमण कर सहस्रारकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है । वहाँ सर्वानुभूति देव की स्थिति अठारह सागरोपम की है । वह सर्वानुभूति देव उस देवलोक से आयुष्यक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने पर यावत् महाविदेह वर्ष में सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा।
भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी कौशलजनपदोत्पन्न सुनक्षत्र नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, वह मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा अपने तप-तेज से परितापित किये जाने पर काल के अवसर पर काल करके कहाँ गया ? कहाँ उत्पन्न हुआ? गौतम ! वह ऊपर चन्द्र और सूर्य को यावत् आनत-प्राणत और आरण कल्प का अतिक्रमण करके वह अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है । वहाँ सुनक्षत्र देव की स्थिति बाईस सागरोपम की है । शेष सभी वर्णन सर्वानुभूति अनगार के समान, यावत्-सभी दुःखों का अन्त करेगा। सूत्र-६५७
भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य गोशालक मंखलिपुत्र काल के अवसर में काल करके कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? हे गौतम ! वह ऊंचे चन्द्र और सूर्य का यावत् उल्लंघन करके अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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